मंगलवार, 24 जून 2008

उर्दू के श्रेष्ठ व्यंग्य : लिंक


बी.बी.सी. : चार कवितायें

http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2007/05/070503_kavita_shahroz.shtml

क्यों रहूँ इस शहर में
अब क्यों रहूँ इस शहर में
नहीं रहे यहाँ अब खेत
न ही साहस है किसी बीज में
उर्वरता के अर्थ बदल चुके हैं
प्रतिभा का चतुराई ने कर लिया है अपहरण.
नहीं आता है कोई कौव्वा छत की मुंडेर पर
चमगादड़ उड़ना भूल, सरकता है रिश्तों की दीवारों पर.
नहीं झरता है वाणी से निर्मल जल
न ही उगलती है आँख अंगारे.
इस जंगल का शेर भी वैसा नहीं दहाड़ता
बहुत स्नेहपूर्वक करता है शिकार
उसकी गर्दन में लटकती ज़बान लपलपा रही होती है.

चित्रांकन-हेम ज्योतिका
चित्रांकन-हेम ज्योतिका
हँसता नहीं कोई खुलकर
रोता भी नहीं बुक्काफाड़कर
दीवारों से नहीं चिपटता दुख का अवसाद
हर्ष का आह्लाद भी नहीं फोड़ता छत
पड़ोसी की गोद में नहीं सुबकता बालक
उसकी मुस्कान माँ की घूरती निगाहों में हो जाती है क़ैद
धड़ाम्! बंद करती दरवाज़ा, बतियाती है घंटों फ़ोन पर
किसी अनदेखे व्यक्ति से, अपनी जाँघों की तिल से पड़ोसिन के नितंबों तक.
बच्चे बड़ों की तरह हो रहे हैं बड़े
लड़कियाँ स्कूल छोड़ते-छोड़ते बन चुकी होती हैं औरतें.
बसंत में भी चिड़िया ने नहीं गाया फाग.
पोशाक से सिर्फ़ दुर्गंध नहीं आती
त्वचा को चुभते हैं उनके कँटीले रेशे
काँधा नहीं मिलता बरसने को आतुर उमड़ते-घुमड़ते बादल को.
सिक्के की चमक गिलास भर पानी में धुल चुकी है
भरी जेब काग़ज़ों का पुलिंदा है.
तुम कहते हो दूरियाँ कम हो गई हैं
हमारा फ़ासला तो और बढ़ता जा रहा है
तुम तक पहुँचने की आशंका
बीच की खाई के जबड़े में दम तोड़ती है
जबड़े के अंदर तुम्हार अट्टाहास गूंजता है.
****
कविता पर रोक
कविता लिखना चाहता हूँ
शर्त रख दी जाती हैः
मुसलमान हो तो;
कुरआन-हदीस पर मत लिखना.
ईसाई हो तो; ईसा के पिता का सवाल
नहीं उठाओगे.
हिंदू हो तो; अयोध्या छोड़कर सारी
‘रामायण’ लिख सकते हो.
मैं बोलना चाहता हूँ
तो प्रतिबंधित कर दिया जाता हूँ.
****
दिल्ली आकर

चित्रांकन-हेम ज्योतिका
चित्रांकन-हेम ज्योतिका
गाँव में थे
क़स्बे से आए व्यक्ति को
घूर-घूर कर देखते.
क़स्बे में थे
शहर से आए उस रिक्शे के पीछे-पीछे भागते
जिस पर सिनेमा का पोस्टर चिपका होता.
शहर में आए
महानगर का सपना देखते.
दिल्ली आकर
गाँव जाने का ख़ूब जी करता है.
****
सपने थे
सपने थे
नेक नियत के.
सपने थे
नेक चलनी के.
सपने थे
नेक इरादों के.
सपने थे
हर्ष-उल्लास के.
सपने थे और सिर्फ़ सपने थे.

आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं  

मंगलवार, 17 जून 2008

अन्तिम भाग

दिन भर की मजदूरी के बाद घर लौटा पिता
बच्चे को छाती से चिपटायेगा
उसके गर्म स्पर्श से संगृहीत करेगा ऊष्मा ,उर्जा
पिता की तरह टांगो पर टांग चढाये
बच्चा अख़बार देखेगा
पिता पुलकित होगा मंद -मंद..............

पूरी कविता पढने के लिए रविवार देखिये 

शेष .....


खिड़की से झांकता हुआ पार्क या बस स्टाप पर गुटुरगूं करते युगल को
देख कबाब बन धुंआ उगलता जाएगा
उसका विश्वास लबरेज़ होगा की सारी स्त्रियों को
सिर्फ़ वही तृप्त कर सकता है ।


शेष रविवार में ...

सोमवार, 16 जून 2008

मेरे न रहने पर

मेरे न रहने पर
खिड़की पर चाँद अटक जायेगा
कमरे में रौशनी छिटका करेगी
कुछ न कुछ चमक रहा होगा
मेज़ पर बिखरे पन्ने
फर्श पर खिलोने ।


पूरी कविता पढने के लिए क्लिक करें :

रविवार, 15 जून 2008

ग़ज़ल

लहू गो अश्क बन कर बह गया है
मेरे दामन पे धब्बा रह गया है

कहाँ जाऊं मैं तेरे दर से उठ कर
यही ले दे के इक दर रह गया है

मेरी मजबूरियाँ मत देख जालिम
सितम ढाले जो बाक़ी रह गया है

नज़र आते हैं तेवर बदले -बदले
कोई कुछ चुपके -चुपके कह गया है

पड़ीं क्या -क्या नहीं इस पर बलाएँ
भला हो दिल का सब कुछ सह गया है

उन्हें हो उनकी खुशनुदी मुबारक
मेरी किस्मत में गिरया रह गया है

क़मर कुछ शे 'र और पढिये
ज़माना अब भी तिशना रह गया है

गुरुवार, 12 जून 2008

सिनदीर के चित्र आभार सहित


सोमवार, 9 जून 2008

बाबा की पाती



(आयेश और आमश के लिए )

हमारे पास कुछ भी नहीं है
चंद औराक गर्दिशे -दोराँ के
चंद नसीहतें जो नस्ल दर नस्ल हम तक पहुंचीं
ऐसा विश्वास जहाँ श्रद्धा के अतिरिक्त
सारे सवाल अनुत्तरित और प्रतिबंधित
हैं

मैं कांपता था , लड़खडाने लगते थे क़दम
पसीने लगते थे छूटने
तुम मत डरना
कभी कुत्ते के भोंकने और बिल्ली के म्याओं म्याओं से

शिनाख्त रखना नहीं
न वजूद के पीछे
भागना
रैपर बन जाना
किसी भी साबुन की टिकया
का चमकदार और भड़क दार ,
टिकया के बारे में न सवाल करना न करने देना ;
वे एक सी होती हैं
सभी
हाँ !रैपर का नाम ही तुम्हारा होगा
यह मान बढायेगा तुम्हारा

अनुभव की पोटली से निकले ये चंद
सिक्के बेईमानी ,झूठ और मक्कारी
कल तुम्हारे मुद्रा -अस्त्र होंगे

सहेजकर रखना इस वसीयत
को

मुझे याद मत
करना

किरदार और गुफ्तार रफ़्तार की
रखना रेत के टीले मत बनाना ।

आमश


आयेश


रविवार, 1 जून 2008

ग़ज़ल -1

इश्क़ गर बेहिसाब हो जाए
ज़िंदगी कामयाब हो जाए

वो अगर बेनकाब हो जाए
ज़र्रा भी आफताब हो जाए

तुमने देखा कहीं हुस्न -अज़्ल
देख लो इंकलाब हो जाए



मुस्कुरा दें गर वो गुलशन में
कांटा-कांटा गुलाब हो जाए



उनसे गर इंतेसाब हो जाए
रग-रेशा  शादाब हो जाए




ज़िन्दगी गर अताब हो जाए
क़तरा-क़तरा तेज़ाब हो जाए

ग़ज़ल

न शओकत, न शोहरत , न ज़र चाहिए
फ़क़त इक तेरी नज़र चाहिए

वफाएं, जफाएं हैं अपनी जगह
दुआओं में कुछ असर चाहिए

समझकर बताओ ,ज़रा शेख जी
ख़ुदा चाहिए उसका घर चाहिए

तगाफुल बहुत हो लिया ऐ क़मर
कहो जिसको घर ,वैसा घर चाहिए

शर से महफूज़ हो ले हर इक पर
यूं मज़बूत दीवारों-दर चाहिए
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