हिन्दुस्तानी का शायर अहमद फ़राज़ :
किस-किस को बताएँगे जुदाई के सबब हम
उर्दू ज़बान हिन्दुस्तानी उपमहाद्वीप की साझा-संस्कृति और परम्परा की उपज है.यह ऐसी भाषा है जो आज भी विभाजित दो बड़े भूभागों को एक सूत्र में पिरोने का काम करती है.ग़ज़ल की इसमें महती भूमिका है.दोनों मुल्क की पत्र -पत्रिकाये , ख्वाह हिन्दी या उर्दू की हों , सीमा आर-पार के शायरों से अटी रहती हैं।
अहमद फ़राज़ ऐसा ही शायर था.उसे फैज़ और जोश की परम्परा का माना गया ।
वोह दुन्या का गीत गाता रहा।
१२ दिसम्बर १९३१ को ,नोशेहरा में जन्मा ये शायर अमरीका में जाकर आखरी नींद सो गया.कुछ दिनों क़ब्ल भी इनकी मोत की अफवाह उडी थी, पर फहमीदा रियाज़ ने अखबारों में इक लेख के माध्यम से उसे ग़लत बताया था.कहा जाता है, ऐसी ख़बरों से उस आदमी की उम्र लम्बी होती है.लेकिन नियती!
पाकिस्तान का शहरी ये शायर भारत को अपना दूसरा घर कहता था.इसकी उपश्तिथि न हो तो बड़ा सा बड़ा मुशायरा नाकाम माना जाता था.खाकसार को bhi उनसे दो बार मिलने का saobhagy मिला है.राजपाल से प्रकाशित उनकी किताब ये मेरी नज्में,ये मेरी ग़ज़लें का हिन्दी लिप्यान्तरण मैंने ही किया था.और पाकिस्तानी शायरी का संपादन करते समय उनकी दस ग़ज़ल शामिल की थी.आप शायरी में अपने दिमाग का भी तुंरत इस्तेमाल करते थे.समकाल की बेचैनी का रेखांकन भी उनकी गज़लों में खूब होता है.कहा जाता है aहमद नदीम कासमी कि भावुकता का उन पर ज्यादा असर है, लेकिन फैज़ अहमद फैज़ जैसा प्रगतिशील शायर भी उन्हें खूब भाता था.शायरी के नित्य नए पडाओं और मोडों से आप वाकिफ रहे।
फ़ारसी में मास्टर डिग्री कि सनद से याफ्ता फ़राज़ साहब ने रेडियो के रिपोर्टर से आरम्भ कर अपनी नोकरी के लिए कई दफ्तरों के चक्कर ज्यादा nahin लगाये.प्रोग्राम प्रोड्यूसर हुए.पाकिस्तानी नेशनल सेंटर के निदेशक का पद आखरी रहा.कई वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे थे.उनकी करीब दर्जन-भर से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें दर्द-आशोब, तनहा-तनहा, शब्-खून, नायाफ्त,जानाँ-जानां प्रमुख हैं.हिन्दी में भी उनकी अधिकाँश चीज़ें उपलब्ध हैं.आपने नज्मों और गज़लों के अलावा नाटक भी लिखे।
रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ
शायद ही कोई मिले जो इस ग़ज़ल से अनजान हो.फ़राज़ कहा करते थे कि इसे मेहदी हसन ने इतना गाया है और इतना मशहूर कर दिया है कि अब ये उनकी ही ग़ज़ल मालूम देती है.फिजा में बार-बार उनका ही शे'र गूंजताहै:
क्या रुखसते-यार की घड़ी थी
हंसती हुई रात रो पड़ी थी
अब आप उनकी इक ग़ज़ल से रूबरू हों, बिल्कुल शान्ति के साथ।
ग़ज़ल
____अहमद फ़राज़
शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदायें मुझे न दो
जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
अब तुम तो ज़िन्दगी की दुयाएँ मुझे न दो
यह भी बड़ा करम है सलामत है जिस्म अभी
ऐ खुश्खाने-शहर क़बायें मुझे न दो
ऐसा न हो कभी की पलटकर न आ सकूं
हर बार दूर जाके सदायें मुझे न दो
कब मुझको अत्राफे-मुहब्बत न था फ़राज़
कब मैंने यह कहा है सजाएं मुझे न दो
_______________नगर के धनिकों,चोगा,
अग्रज साथी-रचनाकार aflaatoon ने भी फ़राज़ साहब को याद किया
हार जाने का हौसला है मुझे अहमद फ़राज़
स्तम्भ: व्यक्तित्व
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