मंगलवार, 26 अगस्त 2008

अलविदा!! अहमद फ़राज़

हिन्दुस्तानी का शायर अहमद फ़राज़ :

किस-किस को बताएँगे जुदाई के सबब हम



उर्दू ज़बान हिन्दुस्तानी उपमहाद्वीप की साझा-संस्कृति और परम्परा की उपज है.यह ऐसी भाषा है जो आज भी विभाजित दो बड़े भूभागों को एक सूत्र में पिरोने का काम करती है.ग़ज़ल की इसमें महती भूमिका है.दोनों मुल्क की पत्र -पत्रिकाये , ख्वाह हिन्दी या उर्दू की हों , सीमा आर-पार के शायरों से अटी रहती हैं।

अहमद फ़राज़ ऐसा ही शायर था.उसे फैज़ और जोश की परम्परा का माना गया ।

वोह दुन्या का गीत गाता रहा।
१२ दिसम्बर १९३१ को ,नोशेहरा में जन्मा ये शायर अमरीका में जाकर आखरी नींद सो गया.कुछ दिनों क़ब्ल भी इनकी मोत की अफवाह उडी थी, पर फहमीदा रियाज़ ने अखबारों में इक लेख के माध्यम से उसे ग़लत बताया था.कहा जाता है, ऐसी ख़बरों से उस आदमी की उम्र लम्बी होती है.लेकिन नियती!
पाकिस्तान का शहरी ये शायर भारत को अपना दूसरा घर कहता था.इसकी उपश्तिथि न हो तो बड़ा सा बड़ा मुशायरा नाकाम माना जाता था.खाकसार को bhi उनसे दो बार मिलने का saobhagy मिला है.राजपाल से प्रकाशित उनकी किताब ये मेरी नज्में,ये मेरी ग़ज़लें का हिन्दी लिप्यान्तरण मैंने ही किया था.और पाकिस्तानी शायरी का संपादन करते समय उनकी दस ग़ज़ल शामिल की थी.आप शायरी में अपने दिमाग का भी तुंरत इस्तेमाल करते थे.समकाल की बेचैनी का रेखांकन भी उनकी गज़लों में खूब होता है.कहा जाता है aहमद नदीम कासमी कि भावुकता का उन पर ज्यादा असर है, लेकिन फैज़ अहमद फैज़ जैसा प्रगतिशील शायर भी उन्हें खूब भाता था.शायरी के नित्य नए पडाओं और मोडों से आप वाकिफ रहे।
फ़ारसी में मास्टर डिग्री कि सनद से याफ्ता फ़राज़ साहब ने रेडियो के रिपोर्टर से आरम्भ कर अपनी नोकरी के लिए कई दफ्तरों के चक्कर ज्यादा nahin लगाये.प्रोग्राम प्रोड्यूसर हुए.पाकिस्तानी नेशनल सेंटर के निदेशक का पद आखरी रहा.कई वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे थे.उनकी करीब दर्जन-भर से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें दर्द-आशोब, तनहा-तनहा, शब्-खून, नायाफ्त,जानाँ-जानां प्रमुख हैं.हिन्दी में भी उनकी अधिकाँश चीज़ें उपलब्ध हैं.आपने नज्मों और गज़लों के अलावा नाटक भी लिखे।

रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ

शायद ही कोई मिले जो इस ग़ज़ल से अनजान हो.फ़राज़ कहा करते थे कि इसे मेहदी हसन ने इतना गाया है और इतना मशहूर कर दिया है कि अब ये उनकी ही ग़ज़ल मालूम देती है.फिजा में बार-बार उनका ही शे'र गूंजताहै:
क्या रुखसते-यार की घड़ी थी
हंसती हुई रात रो पड़ी थी

अब आप उनकी इक ग़ज़ल से रूबरू हों, बिल्कुल शान्ति के साथ।


ग़ज़ल
____अहमद फ़राज़

शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदायें मुझे न दो


जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
अब तुम तो ज़िन्दगी की दुयाएँ मुझे न दो


यह भी बड़ा करम है सलामत है जिस्म अभी
खुश्खाने-शहर क़बायें मुझे न दो


ऐसा न हो कभी की पलटकर न आ सकूं
हर बार दूर जाके सदायें मुझे न दो


कब मुझको अत्राफे-मुहब्बत न था फ़राज़
कब मैंने यह कहा है सजाएं मुझे न दो


_______________नगर के धनिकों,चोगा,


अग्रज साथी-रचनाकार aflaatoon ने भी फ़राज़ साहब को याद किया
हार जाने का हौसला है मुझे अहमद फ़राज़

स्तम्भ: व्यक्तित्व 
 

सोमवार, 18 अगस्त 2008

शर्म उनको मगर नहीं आती !

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पिछले दिनों उर्दू लेखकों की धर्मान्धता पर मैंने सवाल उठाया था.अच्छा लगा कई लोग मेरे साथ खड़े हुए.मेरा मानना है कि साम्प्रदायिकता अल्पसंख्यक समाज की हो या बहुसंख्यक समाज की दोनों खतरनाक होती है.सतीश सक्सेना जी ने प्रतिक्रिया दी।आप ख़ुद भी विद्वान् हैं और अपने ब्लॉग पर समय के अहम् सवालों से जूझते रहते हैं.उनकी कविता भी जनता-जनार्दन की हँसी और खुशी की बात करती है.उनके ब्लॉग का पता है :
http://satish-saxena।blogspot.com/ और http://lightmood.blogspot.com/
अभी उनका मेल मिला है इसी मुद्दे पर चूँकि वो पोस्ट इसी जगह पोस्ट हुई थी सो उनकी प्रतिक्रिया भी मैं यहाँ देना उचित समझता हूँ.जोकि बहसतलब है।
_शहरोज़
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शर्म उनको मगर नहीं आती !

सतीश सक्सेना

आपने कट्टर धार्मिक असहिष्णुता, जो हमें आपस में लड़ा दे, उसका विरोध करने की हिम्मत की है ! मुझे चिंता यह है कि कुछ लोग आप जैसे सच्चे मुसलमान को भी काफिर या काफिरों का दोस्त न समझ लें ! आपके ही कहे हुए कुछ शब्द मुझे याद आ रहे हैं !
तंग-जाहिद नज़र ने मुझे काफिर समझा
aur काफिर ये समझता है मुसलमाँ हूँ मैं

ये हम जैसे तमाम लोगों की पीडा है.....

यह अफ़सोस जनक है कि आप जैसे लोगों की इस पीड़ा को कोई नही समझना चाहता , बड़े बड़े विद्वान् यहाँ ब्लाग जगत में ही कार्य कर रहे हैं, मगर कोई यहाँ आकर साथ नही खडा होता ! मैं अपने धर्म को बहुत प्यार करता हूँ मगर मैं अपने मुस्लिम भाइयों व मुस्लिम धर्म को भी उतना ही आदर कर, उन्हें यह अहसास दिलाना चाहता हूँ कि अधिकतर देशवासी उन्हें व उनके धर्म का उतना ही आदर करते हैं जितना अपने का ! और मुझे पूरा विश्वास है कि अधिकतर मुस्लिम भी यही सोचते हैं ! फिर भी प्रतिक्रियावादी इन मीठे दरियाओं को सुखाने का, कोई हथकंडा खाली नही जाने देते ! मुझे नही लगता कि आप जैसे लोगों से अधिक कोई और धार्मिक सद्भाव रखता होगा ! मेरा व्यक्तिगत विचार है कि धर्म के दुरुपयोग करने बालों को बेनकाब करना ही चाहिए ! मगर इस नाज़ुक विषय पर सिर्फ़ उन्ही को आगे आना चाहिए जिसको इसकी समझ हो ! हमें अपने अपने धर्म को सम्मान देना है, और देना चाहिए ! धर्म सबसे ऊपर है, और अपने परिवार में संस्कार और सभ्यता धर्म की ही देन हैं ! मगर धर्म के तथाकथित अपमान के नाम पर उसका दुरुपयोग नहीं होने देना चाहिए ! दुःख तब होता है जब एक बेहद अच्छे और निश्छल व्यक्ति के ऊपर देश तोड़ने, विद्वेष फैलाने, और उसके अपने ही धर्म के अपमान का आरोप उसके ऊपर मढ़ दिया जाता है ! आप चलते रहें , मेरे जैसे बहुत से लोग आपको देख रहे हैं और आपका साथ भी देंगे ! यगाना के बारे में कुछ और तफसील दें, उन्हें पढ़ कर अच्छा लगेगा !

धर्म की परिभाषा लोग अपनी अपनी श्रद्धा और समझ के हिसाब से लगाते हैं , मगर यह नितांत व्यक्तिगत होना चाहिए ! धर्म को साइंस और वाद विवाद की कसौटी पर नहीं आजमाया जा सकता मगर लोग अक्सर इस विषय पर दो दो हाथ करने को हर समय तैयार रहते हैं ! हर मज़हब में सबसे अधिक किसी बात पर जोर दिया गया है, तो वह है आपस में मुहब्बत से रहना, और हम धर्म के जानकार सिर्फ़ इसे ही याद नही रख पाते ! कहते हैं गुरु के बिना सद्गति नहीं मिलती तो कहाँ मिलेंगे हमें गुरु ? आज देश को जरूरत है एक कबीर की जो हम सब को सही राह दिखलायें ! उनके शब्द .....

रहना नहीं देस बिगाना है
यह संसार कागज की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है
यह संसार काँटों की बाड़ी, उलझ उलझ मर जाना है
यह संसार झाड़ अरु झंखार, आग लगे गल जाना है
कहत कबीर सुनो भाई साधो ! सतगुरु नाम ठिकाना है

और मेरा यह विश्वास है कि हम सब में वह चेतना अवश्य जागेगी, एक दिन आएगा जब :
रामू को हर गोल टोपी और दाढ़ी बाले चचा की आंखों में मुहब्बत नज़र आने लगेगी
और मन्दिर के आगे से गुजरता हुआ रहीम, पुजारी को आदाब करके ही आगे जाएगा !

मगर मौलाविओं और पुजारिओं को समझाने के लिए कबीर कब आयेंगे ?

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

दिल पर रख कर हाथ कहिये, देश क्या आजाद है

सवाल दर सवाल है , हमें जवाब चाहिए



और ये सवाल उनका है, जो दमित हैं, दलित हैं, शोषित हैं ।

बड़े अनमने ढंग से लिख रहा हूँ। उत्सव की गहमा-गहमी और मैं कहाँ दुखियारों और पीडितों , गरीबों की बात लेकर बैठ गया।

मुझे सिवा अश्वनी की एतिहासिक जीत के कुछ और नज़र नहीं आता कि मैं खुश हो सकूं।

भले कुछ लोग बाईसवीं सदी में हों लेकिन अपन तो अभी तक अठारहवीं में जी रहे हैं और कई तो सोलहवीं या तेरहवीं में ही हों।


लेकिन भाई खबरें तो इक्कीसवीं या बाईसवीं की ही पढाई-देखाई जाती है।
हाँ हम जैसे कलम के सुरमा भोपाली सर ज़रूर फोड़ सकते हैं।

अभी हाल में ही एक आयोजन में शिरकत करते हुए ख्यात देसी - चिन्तक-पत्रकार प्रभाष जोशी ने कहा :

अब तो मध्य-वर्ग के साथ समाचार माध्यमों ने भी देश में बढती असमानता की और देखना बंद कर दिया है।
जबकि स्थिति यह है कि देश में २००४ में ९ खरबपति थे जो २००८ में बढ़कर ५६ हो गए। यानी फ़क़त चार बरस में ही खरबपतियों की संख्या छः गुना बढ़ गई.(खरबपतियों आज़ादी तुम्हें मुबारक ! ) और दूसरी ओर अर्जुन सेन गुप्ता कि रपट के मुताबिक ८४ करोड़ यानी ७७ फीसदी लोग रोजाना बीस रूपये भी नहीं पाते। उनमें से ३२ करोड़ लोग तो सिर्फ़ एक समय का भोजन जुटा पाते हैं। २२ करोड़ ऐसे हैं जिन्हें पता नहीं कि उनका अगला भोजन कब कहाँ से आएगा या आयेगा भी या नहीं।

हर वर्ष यह पन्द्रह अगस्त आता है, और चला जाता है .रमुआ आज भी रिक्शा चलाता है.उसका बाप भी यही करता था.किसन अब तक मुंबई से नहीं लौओटा है.समीर दत्त अपनी माँ से मिलने जम्मू नहीं जा पा रहा है. जुबैदा अब भी मेम साहब के यहाँ बरतां मांजा करती है.इलाहाबाद की सड़क पर आज भी औरत पत्थर तोड़ती है.गरीबी हटाओ के नाम पर देश पर खरबों का क़र्ज़ हो गया है.पर यह पैसा गरीबों तक नहीं पहुँचा.आँख फाड़कर देखिये तो यह पैसा आपको सड़कों पर भागती चम्-चमाती गाड़ियों,ब्यूटी पार्लरों से ले पाँच सितारा होटलों की लम्बी कतारों, ऊँची-ऊँची मीनारों, खद्दर धारीओं के कुरते झांकती तोंदों और फार्म हौसों में दिख जाएगा।

तेजपाल सिंह तेज ने सही कहा है :

भुखमरी के वोट ने बदले हैं तख्तो-टाज
पर भुखमरी के मील के पत्थर नहीं बदले



बहुत ही सुनियोजित ढंग से अब खेती-किसानी पर भी कब्जे किए जा रहे हैं.खेती को उद्योग का दर्जा देने की बात के साथ-साथ विदेशियों को भी नेवते दिए जा रहे हैं.अब खेती किसानों के लिए नहीं.किसी किसान को कुछ जुगाड़ में मिल जाए गनीमत जानिए.आंध्र से लेकार बस्तर और महारष्ट्र के इलाकों में किसान आत्महत्या कर रहे हैं.अभी नोइडा में किसान पुलिस की गोलिओं का ग्रास बने।

बात महज़ गाँव की नहीं.शहर में पढ़े-लिखे युवाओं की तादाद बढ़ रही है। जो बेरोजगार है.चमक-दमक से प्रभावित होकर इनमें से कई अनैतिक और भ्रष्ट कामों की ओर प्रेरित कर दिए जाते हैं.अपराध के आंकडें बढ़ रहे हैं.श्याम ८ बरस का है.होटल में बर्तन माजता है.करोड़ों बच्चे पढने और खेलने कूदने की उम्र में कबाड़ में अपना भविष्य तलाश कर रहे हैं.महानगर की ओर भागती लम्बी फोज है.दिल्ली, मुंबई और कोल्कता जाने वाली रेल गाँव और कस्बों के जवानों से पटी रहती है.सुंदर कल की खोज में निकले ये लोग घर लोटना चेन तो भी नहीं जा पाते.एकाक भाग्यशाली हो सकते हैं।



आप ही बताएं क्या इन्हें मुबारकबाद कहूं!



अदम गोंडवी याद आ रहे हैं:

सो में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पर रख कर हाथ कहिये देश क्या आजाद है
कोठियों से मुल्क की मियार को मत आंकिये
असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ प आबाद है



रविवार, 3 अगस्त 2008

उर्दू लेखकों की धर्मान्धता

यास यगाना पर इस्लाम-विरोध का इल्ज़ाम
शर्म उनको मगर नहीं आती

तहजीब और गंगा-जमनी गहवारे का गवाह शहर लखनऊ से बहुत बुरी ख़बर मिली है.अपने समय के मशहूर उर्दू शायर यास यगाना पर आयोजित होने वाले परिसंवाद को कथित कट्टरवादी उर्दू के लेखकों के दबाव के कारण स्थगित कर दिया गया . ये हादिसा जून का है . साहित्य अकादमी ये आयोजित कर रही थी.विरोधियों ने ये कहकर आयोजन न होने दिया कि यगाना इसलाम-विरोधी थे.और लखनऊ में किसी तरह का प्रोग्राम नहीं होने दिया जायेगा.
इलाही माजरा क्या है?
ये अदब के भी लोग हैं या नहीं जिन्होंने यगाना जैसे शायर की मुखालिफत की।

इस घटना ने वही पुरानी बहस को जिंदा कर दिया कि क्या ज़बान किसी धर्म-मज़हब की बपोती होती है.
तो क्या प्रेमचंद,सरशार,फिराक पर ये लखनऊ वाले naam-nihadi उर्दू premi -मुस्लिम कभी अपने यहाँ कोई आयोजन नहीं होने देंगे.
क्या अहमक़ानापन है.
फिर बात ये समझ में नहीं आती कि साहित्य अकादमी उनसे डर क्यों गयी.
अगर अदब यानी साहित्य धर्म या मज़हब के मातहत होता तो क्या मीरजैसा शायर ये कहने की जुर्रत करता:

मीर के दीन-ओ-मज़हब को पूछते क्या हो ,उन से
क़शका खींचा, दैर में बैठा कब का तर्क इसलाम किया
तो ग़ालिब कहते हैं:
हमको मालूम है जन्नत की हकीक़त लेकिन
दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है

शओक़ लखनवी ने बहुत तीखे तेवर में शायरी की है।और भी कई शायर-लेखक हुए.क्या ग़ालिब और मीर या यगाना के समय के मुसलमान से आज के ये लखनवी मुस्लिम जिन्होंने विरोध किया ज्यादा ईमान के पक्के हैं? क्या ईमान महज़ किसी के विरोध और समर्थन पर टिका होता है?क्या पाकिस्तान की सरकार गैर-इस्लामी हो गयी ?
मुश्फिक ख्वाजा के संपादन में वहां कुल्लियात-यगाना प्रकाशित हो चुका है।

यूँ ये ख़बर भी और ज़रूरी ख़बर की तरह गुम हो गई थी.अभी उर्दू के लेखक नामी अंसारी का इक ख़त उर्दू के इक अख़बार में छपा तो खाकसार को जानकारी मिली।उनके हम आभारी हैं.इस घटना की जितनी निंदा की जाए कम है.इक शे'र को थोडा सा रद्द-ओ-बदल कर कहने का मन करता है:

अदब का खून होता है
तो मेरी रूह रोती है
अदब के साथ बेअदबी
बहुत तकलीफ़ होती है

(साहित्, आत्मा, सम्मानहीनता,असम्मान)

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