नींद ....अचानक कभी नहीं ...आई लेकिन इधर ऐसा ही हो रहा है...और जानते हैं..उसका समय कब होता है जब मैं खर्राटें लेने लगता हूँ..ठीक उसी वक़्त मुआज्ज़िन अज़ान पुकार रहा होता है या दूर मंदिर से शंख की आवाज़ आ रही होती है ...जी आप सही समझ रहे हैं..रूह जब तक फ़िज़ूल की बक से कलांत और मस्तिष्क की शिराएँ सिकुड़ चुकी होती हैं...
अजब रूह का रिश्ता है सारी दुनिया में...ऐसा उस पर पड़ते दबाव के सबब होता होगा ,,संभव है .लेकिन मुझे कोई रोग नहीं है..मैं तो क़तई नहीं मान सकता ..हाँ इंसानियत ....की इस्मत ..लुटी जा रही है..संस्कृति का शील भंग करने की कोशिशें की जा रही हैं या सभ्यता , कला, साहित्य सृजन ....का शाब्दिक बलात्कार हो रहा है....और हैरानकुन यह है कि ऐसा करने वाले धार्मिक लोग हैं...खुद को वह ऐसा ही मानते हैं..आप न मानें ठेंगे से!!
और ऐसे कई कारण हैं ..जैसे गोधरा, जैसे मुकम्मल तब का गुजरात...दिल्ली की दहशत..मुंबई में .....आततायियों का तीन दिनी खुला राज ....लेखक और चित्रकार का देस निकाला......ज़हन कुंद और दिमाग़ शिथिल होता जाता है..
मैं .....सोच नहीं पाता ..ऐसा क्यों..मैं मुसलमान हूँ..तो रश्दी का समर्थन करूँ या विरोध..कोई पूछता है..आपने हुसैन का समर्थन नहीं किया..क्या इसलिए कि आप मुसलमान हैं...मैं हुसैन को जानता हूँ..तसलीमा को जानता हूँ रश्दी को उनके मुकाबले कम जानता हूँ..और हाँ उस कार्टून को भी देखा है.......जिसे लोग पैगम्बर के नाम से मंसूब करते हैं.....और एक निर्वस्त्र स्त्री का चित्र भी देख रहा हूँ जिसे कई लोग सरस्वती कह रहे हैं...
क्या ज़रूरी है कि आपकी माँ को लोग उसी नज़रिए से देखें...
.कोई उनमें सुन्दरता भी खोज सकता है..किसी को आपकी स्त्री कामदेवी भी लग सकती हैं..कोई घुप्प अंधेरें में जागती आँखों उनके साथ सम्भोग भी करना चाहता हो....ये सरासर गलत हो सकता है ..इसे अपराध या पाप भी आप कह सकते हैं .
माँ की जगह पत्नी बहन प्रेमिका कुछ भी हो..मेरा कहना यह कि आप जिसे जिस रिश्ते, जिस स्नेह या जिस सम्मान से देखते हैं.जैसा बर्ताव करते हैं..यह ज़रूरी नहीं कि आपका पड़ोसी भी उनके साथ वैसा ही बर्ताव करे...ठीक है किसी ने एक कार्टून बनाया और पैगम्बर का नाम दे दिया.....किसी ने एक स्त्री को नंगा दिखाया..और उसे किसी देवी का नाम दे दिया गया....मैं नहीं जनता कि उस बनाने वाले का क्या उद्देश्य रहा होगा..मेरा तो यह कहना है.कि आप उस चित्र को अपना पैगम्बर क्यों मानते हैं..या अपनी देवी क्यों मान लिया.. बाबा तुलसी के यह शब्द :
जाकी रही भावना जैसे
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी
आपने अब तक जो पढ़ा ..आपकी अपने धर्म में जैसी श्रद्धा रही..क्या ये कथित तस्वीरें उन से मिलती हैं..जवाब होगा क़तई नहीं...तो आप क्यों आसमान सर पर उठाए फिर रहे हैं..ज़माने में और भी ग़म हैं..लोगों....
और आप जानते हैं..कला और साहित्य यानी सृजन-धर्मा लोग ज़रा अलग होते हैं...आप इन्हें आज की ज़बान में एडिअट्स कह सकते हैं.....लेकिन जानते हैं आप ..अब मैं उन हदीस का क्या करूँ जिनमें लिखा है.....लेखकों की स्याही शहीदों के खून से भी पवित्र होती है......
अब रश्दी ..तसलीमा .......किसी ने कहा..आप इनमें हुसैन को भी साथ कर लें ..इन्हें आता-जाता कुछ नहीं..हाँ इनकी पकड़ बाज़ार पर खूब है..और बस ...यही उनकी सफलता का राज़ है [इसे आप सार्थकता क़तई न समझें...सार्थक फ़नकार तो रामकुमार, रज़ा या प्रभा खेतान और अरुंधती राय जैसे लोग होते हैं].
क्या हम मान लें.....आवेश की बात कि तसलीमा तोगड़िया की ज़बान बोलती हैं.....या एक दूसरे मित्र का ब्यान कि रश्दी रोज़ सिगरेट की तरह स्त्री क्यों बदलते हैं ......हुसैन को सिर्फ माधुरी और स्तन-नितम्ब ही दिखाई क्यों देता है...
नाश्ता ..नहीं किया..बच्चा रो रहा है..आप कहाँ हैं..जब पत्नी ने टोका..तो तन्द्रा भंग हुई....
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ....क्या ज़रूरी नहीं..क्या समाज के निर्माण में आप लेखक-फ़नकारों के योगदान को यूँ ही ख़ारिज कर देंगे....
आज़ादी का अर्थ यह तो नहीं कि आप अपनी धुन में ..नाली पर ढेला दर ढेला चलाते जाएँ..और किसी को उसकी गंदगी पर आपत्ति हो तो उस से मुंहजोरी करें......
साहित्य या ऐसी दूसरी कलागत विधा क्या आपसी नफरतों का विस्तार है.....
.प्रेमचंद गलत थे या लूशुन ! जिन्होंने साहित्य कला को सबसे उंचा मक़ाम दिया....समाज के विवेक ..आगे चलने वाली मशाल ......
अजंता या एलोरा या इरानी मुसव्विर जिसने ढ़ेरों नबियों के चित्र बनाए...जिनका ज़िक्र क़ुर्रतुल एन हैदर ने अपने एक उपन्यास गर्दिश-ए-रंग-ए-चमन में किया है ,..
आप क्या करेंगे !!!!माथा टन..टन करता है न !!
तीन वर्गों में विभक्त लोगों से क्या स्वस्थ्य वाद-विवाद संभव है!!दो से तो ऐसी कल्पना करना फ़िज़ूल है.इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तब तक ही भली लगती है कि उन पर या उनके धर्म पर किसी तरह की आंच न आये.एक ग्रुप जो हुसैन के समर्थन में है..उसे रश्दी और तसलीमा से उतना ही दुराव है.और जिन्हें तसलीमा और रश्दी या वह कार्टूनिस्ट सब से बड़ा मुक्तिबोध नज़र आता है उन्हें हुसैन से ओसामा लादेन की हद तक नफ़रत है.
ऐसी दोहरी मानसिकता या दोहरे मापदंड ....पूछने की कोई ज़रुरत नहीं है कि यार तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है? तीसरा ख़ाना भी है जिस में चंद लोगों की टोली है जो गाहे-ब-गाहे अपनी उपस्थिति इस नाते दर्ज कराता रहता है कि हम अभी ज़िंदा हैं.लेकिन नक्क़ार ख़ाने में तूती की भला क्या औक़ात!!
अदब-नवाज़ एक दोस्त ने किसी का शेर अपने तईं बदल कर मेरे चेहरे पर चस्पां कर दिया:
अदब का खून होता है तो मेरी रूह रोती है
अदब के साथ बे-अदबी बहुत तकलीफ़ होती है.
बे-अदबी कौन कर रहा है....बे-अदब कौन हैं यहाँ मानने को....विवेकानंद का स्मरण यूँ नहीं होता....जो दूसरों से नफरत करता है वह खुद पतीत हुए बिना नहीं रहता..
क्या आपको नहीं लगता कि हम सभी सदी के आखरी दशकों में ज्यादा से ज़्यादा धार्मिक होते गए...जिसे मैं धर्मांध होना कहता हूँ....फिर विवेकानंद ...धार्मिक पुनरुत्थान से गौरव भी है और खतरा भी, क्योंकि पुनरुत्थान कभी-कभी धर्मान्धता को जन्म देता है.धर्मान्धता इस सीमा तक पहुच जाति है की जिन लोगों ने इसकी शुरुआत की थी वे एक सीमा पश्चात इस पर अंकुश लगाना चाहते हैं तो यह उनके नियंत्रण में नहीं रहती...हम ठीक इसी दौर में नहीं आ पहुंचे....
.क्या ईमान या किसी तरह की आस्था इतनी बौनी हो गयी कि कोई भी दुत्कार दे, लतिया दे.......क्या ऐसे सवाल गैर वाजिब हैं....
या कि यह अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक की सत्ता का खेल है..जहां आम लोगों की हैसियत .महज़ गिनती के लिए होती है..बगला देश , इरान या हिन्दुस्तान से रुसवा फ़नकारों के हाल-ज़ार को [यकीनन वह फ़नकार हैं!! ] सी ए ज़ेड के इस उद्धरण से समझा जा सकता है: मनुष्य समाज का जो कबीला, जो जाति, जो धर्म सत्ता में आता है तो वह समाज की श्रेष्ठता के पैमाने अपनी श्रेष्ठता के आधार पर बना देता है. यानी सत्ता पाए हुए की शक्ति ही व्यवस्था और कानून हो जाया करती है.
मेरी कैफ़ियत फिलवक्त अजब कश-म-कश की शिकार है ..लेकिन अब बक़ौल लाओत्से , मैं जो भी कह रहा हूँ या कहना चाहता हूँ वह सत्य के आस-पास भी हो सकता है .
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