तुम से जुदा होते लगा था :
ख़ाक हो जाएँ वे सभी आँखें
जो तकती हैं हमें
भूखे भेड़िये की तरह
समय के ताप से
चंद की उस नर्म रात में.
तुम से जुदा होते लगा था:
कर दूं बेनक़ाब उन तमाम चेहरों को
जो ओढ़ लेते हैं शराफ़त
झक्क सफ़ेद कुरते में
भूल कर आवारगियाँ
रात के नक़ाब की.
तुम से जुदा होते लगा था:
थूक दूं उन चेहरों पर
जो बहन -बेटी कह, थप-थपाते हैं
गाल और पीठ
यौन-तृष्णा मिटाते
दिन-दिनास्ती सरे-आम.
चित्र: पांच वर्षीय सुपुत्र आएश की कंप्यूटर कारीगीरी .
26 comments:
भाई.... बात तो सही कह रहे हैं आप....
शहरोज़ जी ! सच दिखाया है आपने...ऐसा ही कुछ लिखा था मैने भी कभी मौका लगा तो पोस्ट करुँगी
बहुत सही लिखा आप ने एक दम सटीक
ek katu satya ko ujagar kiya hai.
kis se juda hote hi???
बहुत बढ़िया और सामयिक रचना के लिए शुभकामनायें !
बेहद उम्दा लिखा है आपने ।
कारवां गुज़र गया गुबार देखते उम्दा रचना !!!! सुपुत्र की कारीगरी उससे भी ज़्यादा ही उम्दा !!!!! !!!
bas isi tarah ki aag ki zarurat hai ......
सर बहुत उम्दा शब्द हैं आक्रामकता का बेहतरीन उदाहरण है आपकी ये कविता,साफगोई ,विचार सब सराहनीय है समय मिले तो मेरी कविता "बलात्कार के बाद "पढना आपके सफ़र जितनी उम्र नहीं है मेरी पर प्रयास किया है आपकी टिपण्णी का इंतज़ार करूँगा
--------- पंकज "
kyakahun sivay isake ki aapane ekdam katu satya likha hai.
poonam
जज़्बात के साथ ही आपके बेटे की क्रिएटिविटी बहुत ही शानदार है..
थूक दूं उन चेहरों पर
जो बहन -बेटी कह, थप-थपाते हैं
गाल और पीठ
यौन-तृष्णा मिटाते
दिन-दिनास्ती सरे-आम....बेबाक और बेहतरीन प्रस्तुति..बधाई.
__________________
"शब्द-शिखर" पर - हिन्दी की तलाश जारी है
आखिरी लाइने गज़ब की हैं, हकीकत बयान की है हरामजादों की ...
शुभकामनायें !!
थूक दूं उन चेहरों पर
जो बहन -बेटी कह, थप-थपाते हैं
गाल और पीठ
यौन-तृष्णा मिटाते
दिन-दिनास्ती सरे-आम
sahee kahaa jee
शहरोज़ भाई...रोंगटे खड़े कर दिए इस कविता ने...बड़ी बेबाकी से आपने लड़कियों के दिल का दर्द,गुस्सा,बेबसी...सब बयाँ कर दिया है...
शहरोज़ जी,
आपका नाम बहुत सुना था, पर पहली बार आपके ब्लॉग पर आयी हूँ. मैं एक लड़की हूँ, जिसने लड़की होने के नाते बहुत कुछ सहा है और वही सारी बातें कविता के माध्यम से अपने ब्लॉग "feminist poems " पर लिख देती हूँ. मुझे लगता था कि औरत का ये दर्द, जो आपने अपनी कविता के आखिरी हिस्से में बयां किया है, सिर्फ़ औरतें ही महसूस कर सकती हैं. ये कविता पढ़कर भरम टूट गया. इससे ज्यादा इस कविता के बारे में नहीं कह पा रही हूँ.
मैंने युवा दखल पर आपकी टिप्पणी पढ़ी, उसके माध्यम से ही यहाँ पहुँची हूँ. आपने लिखा है कि ब्लॉग्जगत में दक्षिणपंथियों का बोलबाला है या उनके समर्थकों का. आपकी बात से सहमत हूँ. पर निष्पक्ष सोच वाले और वामपंथी भी हैं, लेकिन बिखरे हुये हैं. मुझे लगता है संगठित होने की ज़रूरत है.
shehroz ji pehli baar apke blog par aayi hu aur ye rachna padhi...kavita ka aakhri stanga...ander tak kuchh lava faila gaya...yahi sab to hota he hamare sath...aur vo u behen-beti keh jate hai ki jubaan bhi hamari khamosh aur ehsaas bhi kulmula k rah jate hai..
bahut marmik rachna. badhayi.
मै आज उड़ना चाहती हुं..
आसमान को छूना चाहती हुं
में हर गली में घूमना चाहती हुं
बहुत हुआ घर का काम
अब कुछ पल में आराम चाहती हुं
छत पर बेठ कर घंटो
तारों को गिनना चाहती हुं
बन कर पंछी
आज फुदकना चाहती हुं
बहुत हो गयी डांट
हर वक्त किसी का साथ
इस पिंजरे से में आज छूटना चाहती हुं
हैं आंसू छिपे इन आँखों में
दिल में दर्द हैं हजार
आज में फूटना चाहती हुं
बनकर छोटी सी बच्ची
आज में फुदकना चाहती हुं
कोई निकल सके वक्त मेरे लिए
तो में आज कुछ कहाँ चाहती हुं
आज प्यार भरे दो लफ्ज
में सुनना चाहती हुं
अगर सच कहूँ में आज
तो ये सच हैं के
में जीना चाहती हुं में
बस जीना चाहती हुं
पर मौत को नही
जिन्दगी को जीना चाहती हुं..
हाँ में जीना चाहती हुं..!
ब्लॉग एग्रीगेटर की सुखद सूचना मिली। हम लोग भी काफी समय से इस बारे में सिर्फ सोच ही रहे थे।
...अंतिम पंक्तियां बेहद प्रभावशाली व प्रसंशनीय हैं, बहुत बहुत बधाई!!!
अच्छी रचना.........आप को इस रचना के लिये बधाई.......
उम्दा!!
Kuch Asamajik tatvon ko benakab karti aapki rachna bahut achhi lagi.. ... yah aag jalti rahani chahiye jo logon kee hasti-khelti duniya mein aag lagakar chup baith jate hain.. unhe jalane ke liye.....
Bahut shubhkamnayne..
Sirf kavita likhna ya shor karna.......
Aapki baat se sahmat hoon.
Baat sahi hai..yah rona sadiyon se chala aa raha hai..jab aurat majboor hoti hai to uski ichha kab poochhee jati hai?
एक टिप्पणी भेजें