गुरुवार, 4 सितंबर 2008

अनपढ़ क्यों हैं मुस्लिम औरतें

तुमने अगर इक मर्द को पढाया तो मात्र इक व्यक्ति को पढाया। लेकिन अगर इक औरत को पढाया तो इक खानदान को और इक नस्ल को पढाया।

ऐसा कहा था पैगम्बर हज़रत मोहम्मद ने ।
लेकिन हुजुर का दामन नहीं छोडेंगे का दंभ भरने वाले अपने प्यारे महबूब के इस क़ौल पर कितना अमल करते हैं।
भारत में महिलाओं की साक्षरता दर ४० प्रतिशत है,इसमें मुस्लिम महिला मात्र ११ प्रतिशत है। हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने वाली इन महिलाहों का प्रतिशत मात्र २ है और स्नातक तक का प्रतिशत ०.८१
मुस्लिम संस्थाओं द्वारा संचालित स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर मुस्लिम लड़कों का अनुपात ५६.५ फीसदी है, छात्राओं का अनुपात महज़ ४० प्रतिशत है। इसी तरह मिडिल स्कूलों में छात्रों का अनुपात ५२.३ है तो छात्राओं का ३० प्रतिशत है।
मुस्लिम औरतों के पिछडेपन की वजह हमेशा इस्लाम में ढूँढने की कोशिश की जाती रही है।
इस्लाम कहता है , पिता या पति की सम्पति की उत्तराधिकारी वो भी है । वो अपनी से शादी कर सकती है.हाँ, माँ-बाप की सहमती को शुभ माना गया है। उसे तलाक़ लेने का भी अधिकार है.विधवा महिला भी विवाह कर सकती है.अगर मुस्लिम महिला नौकरी या व्यवसाय करती है तो उसकी आय या जायदाद में उसके पिता, पति, पुत्र या भाई का कोई वैधानिक अधिकार हासिल नहीं रहता। साथ ही उसके भरण-पोषण का ज़िम्मा परिवार के पुरूष सदस्यों पर ही कायम रहता है।
इसके अतिरिक्त भी कई सुविधाएँ और अधिकार इस्लाम ने महिलाओं को दिए हैं जो इस बात के गवाह हैं कि उनके अनपढ़ रहने या पिछडेपन के लिए धर्म के नियम-कानून बाधक नहीं हैं।
इसके बावजूद उनकी हालत संतोषजनक कतई नहीं है.इसका मूल कारण पुरूष सत्तावादी समाज है। महिलाएं चाहे जिस वर्ग, वर्ण, समाज कि हों, सबसे ज्यादा उपेक्षित हैं, दमित हैं, पीड़ित हैं।
इनके उत्थान के लिए
बाबा साहब भीम राव आंबेडकर ने महिलाओं के लिए आरक्षण की वकालत की थी।
महात्मा गाँधी ने देश के उत्थान को नारी के उत्थान के साथ जोड़ा था।
पहली महिला न्यायाधीश बी फातिमा , राजनेता मोहसिना किदवई , नजमा हेपतुल्लाह , समाज-सेविका -अभिनेत्री शबाना आज़मी, सौन्दर्य की महारती शहनाज़ हुसैन, नाट्यकर्मी नादिरा बब्बर, पूर्व महिला हाकी कप्तान रजिया जैदी, टेनिस सितारा सानिया मिर्जा, गायन में मकाम-बेगम अख्तर, परवीन वैगेरह , साहित्य-अदब में नासिर शर्मा, मेहरून निसा परवेज़, इस्मत चुगताई, कुर्रतुल ऍन हैदर तो पत्रकारिता में सादिया देहलवी और सीमा मुस्तफा जैसे कुछ और नाम लिए जा सकते हैं, जो इस बात के साक्ष्य हो ही सकते हैं की यदि इन औरतों को भी उचित अवसर मिले तो वो भी देश-समाज की तरक्की में उचित भागीदारी निभा सकती हैं।
लेकिन सच तो यह है कि फातिमा बी या सानिया या मोहसिना जैसी महिलाओं का प्रतिशत बमुश्किल इक भी नहीं है। अनगिनत शाहबानो, अमीना और कनीज़ अँधेरी सुरंग में रास्ता तलाश कर रही हैं।
मुस्लिम महिलाओं के पिछडेपन की वाहिद वजह उनके बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार का न होना है। हर दौर में अनपढ़ को बेवकूफ बनाया गया है। अनपढ़ रहकर जीना कितना मुहाल है, ये अनपढ़ ही जानते हैं। पढ़े-लिखों के बीच उठने-बैठने में , उनसे सामंजस्य स्थापित करने में बहुत कठिनाई दरपेश रहती है। मुस्लिम औरतों का इस वजह्कर चौतरफा विकास नहीं हो पाता। वो हर क्षेत्र में पिछड़ जाती हैं। प्राय:कम उम्र में उनकी शादी कर दी जाती है। शादी के बाद शरू होता है, घर-ग्रहस्ती का जंजाल। फिर तो पढ़ाई का सवाल ही नहीं। ग़लत नहीं कहा गया है कि पहली शिक्षक माँ होती है। लेकिन इन मुस्लिम औरतों कि बदकिस्मती है कि वोह चाह कर भी अपने बच्चों को क ख ग या अलिफ़ बे से पहचान नहीं करा पातीं।
परदा-प्रथा इनके अनपढ़ रहने के कारकों में अहम् है.ये कहना काफ़ी हद तक सही है.उसे घरेलु शिक्षा-दीक्षा तक सिमित कर दिया गया है.और ये शिक्षा-दीक्षा भी सभी को नसीब नहीं.पढने के लिए महिलाओं को बहार भेजना मुस्लिम अपनी तौहीन समझते हैं.और इसे धर्म-सम्मत भी मानते हैं.हर मामले में धर्म को घसीट लाना कहाँ कि अक्लमंदी है.जबकि इस्लाम के शुरूआती समय में भी औरतें घर-बहार हर क्षेत्र में सक्रीय रही हैं.इस्लाम में महिलाओं पर परदा जायज़ करार दिया तो है लेकिन इसका अर्थ कतई ये नहीं है कि चौबीस घंटे वो बुर्के में धनकी-छुपी रहें॥ बुर्का या नकाब का चलन तो बहुत बाद में आया.इस्लाम कहता है कि ऐसे लिबास न पहनो। जिससे शरीर का कोई भाग नज़र आ जाए या ऐसे चुस्त कपड़े मत पहनो जिससे बदन का आकार-रूप स्पष्ट हो अर्थात अश्लीलता न टपके। इसलिए पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के समय औरतें सर पर छादर ओढ़ लिया करती थीं.कुरान में दर्ज है , पैगम्बर (हज़रत मोहम्मद) अपनी बीबियों, लड़कियों और औरतों से कह दो कि घर से बाहर निकलते वक्त अपने सर पर छादरें डाल लिया करें।
ईरान के चर्चित शासक इमाम खुमैनी ने भी बुर्का-प्रथा का अंत कर औरतों को चादर कि ताकीद कि थी.पैगम्बर के समय मुस्लिम औरतें जंग के मैदान तक सक्रीय थीं.लेकिन कालांतर में पुरूष-वर्चस्व ने उसे किचन तक प्रतिबंधित करने कि कोशिश कि और काफ़ी हद तक कामयाबी भी हासिल कर ली। कई मुस्लिम देश ऐसे हैं जहाँ महिलाएं हर क्षेत्र में सक्रीय हैं.लेकिन विश्व कि सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले धर्म-निरपेक्ष तथा गणतंत्र भारत में उसकी स्थिति पिंजडे में बंद परिंदे कि क्यों?
इसका जिम्मेदार मुल्ला-मौलवी और पुरूष प्रधान समाज ही नहीं स्वयं महिलाएं भी हैं जो साहस और एकजुटता का परिचय नहीं देतीं।
ज़रूरत है इक बी आपा की जिन्होंने अलीगढ में स्कूल कालेज की स्थापना की थी ।
Related Posts with Thumbnails

हमारे और ठिकाने

अंग्रेज़ी-हिन्दी

सहयोग-सूत्र

लोक का स्वर

यानी ऐसा मंच जहाँ हर उसकी आवाज़ शामिल होगी जिन्हें हम अक्सर हाशिया कहते हैं ..इस नए अग्रिग्रेटर से आज ही अपने ब्लॉग को जोड़ें.