बुधवार, 25 नवंबर 2009

नाम तो मुझको भी अपने क़ातिलों का याद है








आज मुंबई हादसे की बरसी है. विशेष लोक अदालत में २६५ गवाहों की सुनवाई हो चुकी है. सिर्फ़ दस गवाह रह गये हैं और पूरी आशा है कि मामले की सुनवाई जल्द ही मुकम्मल कर ली जाएगी. लेकिन आम जनता के बीच असली सच कब आएगा या आकर भी अपना चेहरा तकता रह जाएगा, खुदा ही जाने! क्योनिकि सब-कुछ तो सरे आम घटा ठीक ६ /१२ की तरह जब एक पुरानी मस्जिद को ज़मींदोज़ कर दिया गया था. क़रीब दो दशक होने को आए और खर्च हुआ आठकरोड़. लेकिन हासिल पाया शून्य! यानी खोदा पहाड़ निकली चुहिया!

बहुत पहले एक कविता ज़हन में आई थी और उसको लेकर हिन्दी अकादमी ने मेरी पुस्तक से अपनी प्रकाशन सहयोग योजना वापस ले ली थी अघोषित ढंग से. ...

सब कुछ हमारे सामने घटा था
लेकिन हम कायर थे
और अंधे बहरे हो चले थे.
हमने छेह साऔ साल पुरानी इमारत को
ढाँचा कहना शुरू कर दिया था
और ढाँचा को इमारत कहने की तैयारी कर रहे थे.

जब मैं दिल्ली में ही था. दोपहर को उमा भारती की खिलखिलती यह तस्वीर सांध्य-टाइम्स में छपी थी.यानि अब महाराज! काम हो गया हमने आख़िर विदेशी चिन्ह को मतियामेट कर ही दिया , ऐसा वो मुरली मनोहर जोशी से कह रही थी. जिनके काँधे पर वो सवार दिखीं.

हम क्या बताएँ! कोई ढाकी-छुपि बात है नहीं. हम तो ये कहना चाहते हैं की आयोग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव को बरी कैसे कर दिया यानी दोष-मुक्त!!! मस्जिद शहीद की जारही है.ये न सिर्फ़ उन्हें बल्कि सारी दून्या को सुबह पता चल गया थं मस्जिद की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ राज्य सरकार की ही नहीं केंद्र की भी थी.लेकिन केंद्र खामोश रहा . जब तक कि .दूसरे दिन दुपहर पूरी इमारत को ज़मीन दोz कर अस्थाई ढाँचा खड़ा नहीं कर दिया गया.

उस दिन केंद्रीय सुरक्षा बाल को घटना-स्थल से पहले ही रोक दिया गया. और जो पुलिस बल वहाँ था. वो न सिर्फ़ तमाशायी था बल्कि कहीं न कहीं घटने में शामिल भी .दूसरे दिन सुबह आठ बजे के आस-पास राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा.लेकिन कारसेवकों को शाम तक खुली आज़ादी दी गयी. ताकि मंदिर का स्थाई निर्माण हो सकेऽउर उस एटिहासिक क़स्बे में आतंकवादियों को नंगा नाच !करने की छूट!! जब यही शब्दावली थी! मुसलमानों के ३०० घर खाक हुये.कइयों की जान गयी! उनपर कोई मुक़दमा नहीं! तब की सरकार को सारी ख़ुफ़िया जानकारी थी. बावजूद? और दूसरे दिन भी आँख मूंदना?

संघ क्या है और क्या चाहते हैं उनके लोग ये हर कोई जानता है!

लिब्रानी रपट से संघी हैं गो परेशान
अपने किए पर हरगिज़ लेकिन नहीं पेशमान!

वो परेशान भी हरगिज़ नहीं! और पेशमान तो लज्जा वाले होते हैं.


लेकिन कथित सेकुलर लोगों की करामात!! तेरी सादगी पर कौन मर जाए न खुदा!

खुशी की बात ये है कि अब जनता सियासत की चालों को जान-समझ चुकी है.जिसका डर था कि मुसलमान न भड़क जाएँ ! हिंदू आग बगोला न हो ! ऐसा आज का सच है सॉफ-सॉफ!! लेकिन सियासत के लोगों को चैन कहाँ! अमर सिंह मुसलमानों के मसीहा कब हो गये!

खामोश! अब हम जाग चुके हैं. संघ की बातें संघी जाने???


एक शायर के हवाले से मैं इतना ही कहूँगा:

मिंहदम-गुंबद अभी तक माइल-ए-फर्याद है
मेरी इक-इक ईंट मज़लूमी की इक रूदाद है
देखना है क़ातिलों को कौन देता है सज़ा
नाम तो मुझको भी अपने क़ातिलों का याद है!!!


१. नष्ट गुंबद, २. फर्याद करता है,३. अत्याचार, ४. दुखांत-कथा

रविवार, 1 नवंबर 2009

तेरा साया




साथियों, यूँ क्षमा-याचना महज़ औपचारिकता होगी लेकिन बात सच है.और धतूरे की तिक्ता कैसी भी हो, वजूद उसका अपनी जगह अटल है,और ज़िन्दगी तो कहीं धूप-छाओं.ग़म की चाशनी में ही तो सुख का सुस्वादु लड्डू मयस्सर होता है.और साथी, आप से अलग कहाँ रह पाया सुकून से.ज़माने बाद आपके बीच आया हूँ.स्थितियां ऐसी रहीं कि गूगल महाराज के दर्शन बकौल हिन्दी के ख्यात कवि अशोक वाजपई कभीकभार ही सम्भव होता रहा .और फुर्सत...बराय नाम .खैर! माह-भर से माँ की सेवा में हूँ.सेवा क्या बस वक्त का बहाना है.इतनी जल्दी इस अजीम और फ़लक्बोस साए से वंचित होना कौन चाहेगा! ज़ाकिर भी नहीं चाहते थे। दिल्ली के पन्त अस्पताल में उनकी माँ बेहोश रहीं और फिर हम-सब बिलबिलाते-सुबकते ही रहे.वो जा चुकी थीं।
मेरी अम्मी को ईद की रात सेवियर अटक हुआ.ईद लम्हे में मुहर्रम हुआ।
हफ्ते-भर स्थानीय चिकित्सकों के सहारे रहीं.२७ सितम्बर को लोग उन्हें लेकर पटना दौडे .दशहरे का दिन.शहर हुजूम से लबरेज़!मैं रात दस बजे स्टेशन पंहुचा.और बमुश्किल एक ऑटो लेकर इंदिरा गांधी हिरदय संस्थान पहुंचा.अब तक घड़ी में बारह बज चुके थे.अम्मी नीम-बेहोशी में.उनकी रगों में पहुँचता बोतल सिरहाने लटका था.हफ्ते बाद एक रोज़ डॉक्टर ने अचानक मुझे बुलाकर सकते में डाल दिया .बेटा इनकी दोनों किडनी फेल है!!! हार्ट की हालत अब खतरे से बाहर है.दवा चलती रहेगी.आप इन्हीं कहीं और दिखला लें तदुपरांत घर ले जा सकते हैं.हम भाई उन्हें लेकर शहर के प्रसिद्ध चिकित्सक यूं.एस.राय के यहाँ पहुंचे.और दवाओं की थैली लेकर अंतता गृह-नगर शेरघाटी हम आ गए। आकर अनहोनी होते-होते टली.तीन-रात ...ओह!! कैसी गुजरी.आवाज़ बंद और न अन्न-जल उनहोंने ग्रहण किया.परम्परानुसार कुरान की सूरत यासीन की तिलावत जारी रही.समग्र समां और श्रद्धा के साथ.आख़िर खुदा रहीम सिद्ध हुआ..निसंदेह इसे चमत्कार कह्सकते है..हर कोई निराश..लेकिब अब अम्मी ठीक हैं.बोलती भी हैं.हाँ! नित्य-कर्मों के लिए दुसरे पर निर्भर हैं.चल-फिर नहीं सकतीं.हमइ है. बच्चों के लिए यही काफ़ी है.अब आस है माँ रहेंगी और.......अल्लाह से दुआ है...ये आस कायम रहे.......

इसी दरम्यान बाल-सखा इमरान अली से भेंट हो गई.वो रंगों की दुन्या में हमारे मंझले भाई उर्दू कथाकार और रंगकर्मी शहबाज़ रिजवी के शिष्य रहे.पर घर में आने-जाने के कारण हम से याराना रहा.जनाब इन दिनों शेरघाटी को जिला बनाओ आन्दोलन के सूत्रधार बना हुए हैं.पेशे से विज्ञापन -एजेंसी के संचालक रहे इमरान की अभिरुचि साहित्य और कला के खेत्र में भी खूब रही है.कुछ भोजपुरी काम कर चुके हैं.चर्चित लेखक संजय सहाय की कहानी पर बनी फ़िल्म पतंग में भी अभिनय कर चुके हैं.स्थानीय नगर पंचायत के निर्वाचित सदस्य भी रहे.मैं इन्हें शेरघाटी का जीवित संग्रहालय कहता हूँ.एक शाम मुझे पकड़ कर घर ले गए और मुझे हैरत में डाल दिया.कहा, इस फ़िल्म को देखो, चूं-चपाड़ मत करना!
मैं उनके कमाल को देखता ही रह गया.भले इस शहर की एतिहासिक सास्कृतिक थाती रही है.लेकिन वर्तमान में ये शहर आज भी मौलिक सुविधाओं से वंचित है.ये दीगर है कि ईद -दीपावली मिलकर मनाया जाता है तो कभी मुहर्रम और रामनावीं में तनाव भी हो जाता है . बावजूद सांप्रदायिक -सद्भाव अपनी जगह स्थिर है।
खैर! सीमित संसाधनों में निर्मित इस फ़िल्म का आनंद आप ज़रूर लें : फ़िल्म पाँच हिस्से में है,जागो-१,jago -२ ,जागो-३,जागो-४,जागो-5

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