शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

मुसलमान जज़्बाती होना छोड़ें



मायूस न हों और आक्रोशित न हों।
-हज़रत मोहम्मद स.




विभाजन के ठीक वर्ष-भर बाद भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा एक सर्वेक्षण कराया गया था। यह सन् १९४८-४९ की बात है। सात बड़े शहरों यथा मुंबई, कोलकाता, चेन्नई , अहमदाबाद, पटना, अलीगढ और लखनऊ में रहने वाले मुसलामानों से बात-चीत की गई थी। इस सर्वे में एक सहयोगी गार्डन मर्फी यूनेस्को की ओर से थे। जिन्होंने बाद में इक किताब लिखी इन दी मायन्ड्स ऑफ़ मेन , जिसमें उन्होंने लिखा :





आज का मुसलमान डरा हुआ है, अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित रहता है। सरकार उसके जान-माल की रक्षा नहीं कर पा रही है। नौकरियों और रोज़गार में उसके साथ भेद-भाव बरता जा रहा है। राजनितिक क्षेत्र में उसकी शक्ति और महत्त्व को ख़त्म किया जा रहा है।




आज इस हालत में बहुत ज्यादा तब्दीली नहीं आई है।




आज जिस असमंजस की दशा में वो जी रहा है। ऐसी हालत में कमोबेश हर कमज़ोर वर्ग रहता है। जो क़ौम शिक्षा और आर्थिक मामले में आत्म निर्भर रहती है, उसे बहुत जल्दी जज़्बात में नहीं भड़काया जा सकता। लेकिन मुसलामानों का दुर्भाग्य है कि इस भारतीय उपमहाद्वीप में वो इस क्षेत्र में अभी भी पिछडा है। अपवाद जनाब कहाँ नहीं होते हैं। यही वजह कि उसे हमेशा मज़हब के नाम पर बरगलाया जाता रहा है। भारत में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक हुकूमत है। लेकिन ऊंचे मकाम पर बैठे लोगों की नियत में कहीं न कहीं खोट कभी-कभार देखाई दे जाता है। और इसी खोट को चालाक लोग मुद्दा बना देते हैं। और मुस्लिम युवा सड़क पर चला आता है। विरोधी शक्तियां इसी फिराक में रहती हैं कि कब उन्हें इक बहाना मिले। दरअसल इन शक्तियों का भी अपना गणित-लाभ रहता है। इन दो-ढाई दशक में ऐसी शक्तियों को खाद्य-पानी बहुत मिला है। और इधर अल्पसंख्यकों को लगातार हतोत्साहित करने उन्हें किसी न किसी बहाने परेशान करने कि घटनाएं बढ़ी हैं। और इक शायर तुफैल लखनवी कहता है:


ऐसा होता है क्या निज़ामे-दस्तूर


हर तरफ़ क़त्ल-खून दंगा है


अब तो हम्माम में सियासत के


जिसको देखो वो शख्स नंगा है











आजकल फिर कुछ सर-फिरों की बदौलत पैदाहालत का लाभ सियासत उठाना चाह रही है।ये सियासी दल जहाँ एक डराता है तो दूसरा उसका विस्तार करता है, हमदर्दी जतलाने की कोशिश करता है । और मुसलामानों में असुरक्षाबोध को बढ़ाने में कट्टरवादी और उदारवादी दोनों तरह के लोग शिरकत करते दिखलाई देते हैं। जबकि ये कथित हमदर्दियां बहुत दिनों तक उसमें ऊर्जा का संचार नहीं कर पातीं। फिलहाल फिर खौफ पैदा की जाने की कोशिश की जा रही है। ये सही है कि आप के साथ ग़लत हुआ है , आपकी राष्ट्रीयता पर सवाल किए जा रहे हैं। बावजूद इसके आप होश से काम लें , अपना जोश कायम रखें।





हुजुर-अकरम मोहम्मद स. की हदीस याद रखिये जब वो ऐसे वक्त कहा करते थे:





मायूस न हों और आक्रोशित न हों।





आप मायूस इसलिए न हों कि अल्लाह आपके साथ है। हमारा मुल्क हमारी हिफाज़त करेगा। यहाँ के कानून पर यकीन है। और अभी मुल्क सेकुलर इसलिए है कि ज़्यादातर आबादी ईमानदार है। कानून की कुर्सियों पर भी सभी बेईमान नहीं बैठे हैं। आप अपने हकों के लिए , इन्साफ के लिए अमन के साथ अपना जद्दोजिहद चलाईये। और देश के सच्चे और जनपक्षधर लोगों को साथ रखिये। आपके नेताओं ने ही आपको हमेशा लूटा है। उनके नारों के पीछे न पड़िये।





आपको हमेशा इस्लाम के नाम पर उल्लू बनाया गया है। इन नेताओं ने रोज़ी-रोटी जैसी मूलभूत समस्याओं के लिए कभी राष्ट्रिय आन्दोलन खड़ा किया ? सच्चर-सच्चर चिल्लाते रहे , कभी आपके नेताओं ने सरकारी गद्दी छोड़ी?

मुसलमानों का दुर्भाग्य रहा की उसने किसी एक का नेतृत्व कभी स्वीकार नहीं किया. अपने बीच से उसने कभी एक राष्ट्रिय क़द-काठी का नेता पैदा नहीं किया. मौलाना आजाद को छोड़कर. जिसमें सलाहियत रही उसे समय ने खारिज कर दिया. मुसलामानों के नेता शुरू से ही गैर-मुस्लिम रहे . पंडित नेहरु के जादुई शख्सियत का असर बरसों तक उन पर रहा, फिर इसकी जगह इंदिरा गाँधी ने ली. उसके बाद हेमवतीनंदन बहुगुणा , चरण सिंह , वी.पी. सिंह तथा मुलायम सिंह यादव और लालू यादव क्रमश:आते गए
लेकिन उनकी हमदर्दी उतनी ही रही जितनी हम पड़ोस के बच्चे के साथ निभाते हैं। अभी भी सभी सियासी जमात मुसलामानों को अपनी तरफ लाने में जी-जान से जुड़े हुए हैं. लेकिन सत्ता-प्राप्ति के बाद इनकी ये नाम-निहादी हमदर्दी भी काफूर हो जाती है.और इनकी टिकट पर मुस्लिम वोटों के बूते जीते मुस्लिम रहनुमा का किरदार भी अन्य देसी नेताओं से अपेक्षकृत बहुत अच्छा नहीं रहता. इनका भी कोई उसूल नहीं कायम रह पाता है , और बक़ौल मासूम गाज़ियाबादी:

जहां रहबर उसूले-रहबरी को छोड़ देता
वहीँ लुटते हुए देखे हैं अक्सर कारवाँ मैंने

प्यारे भाईओं, आप अपना उसूल न भूलें जभी कारवाँ को बचाया जा सकता है। आपने अलीगढ , मुरादाबाद, भिवंडी, मुरादाबाद जैसे अपने औद्योगिक नगरों को जलते देखा, इक तहजीब जिसमें गंगा-जमना का पानी छल-छलाता था, उसे मिस्मार होते देखा, इक सूबे में हुक्मरान की बजती बांसुरी देखी और गाँव-शहर धुंआ उगलते रहे.....आपने सब देखा ...लेकिन आप कुछ दिनों के बाद फिर अपनी जद्दोजिहद में लग गए, रोज़ी-रोटी के लिए जुट गए. पढने-लिखने और नौकरी-चाकरी के लिए दौड़-धूप करने लगे. आपने गर सब्र किया तो उसका फल भी आपको ही मिलेगा.

आप जज़्बाती नारों से गुरेज़ करें। कोई ऐसा क़दम न लें जिसका खामियाजा आपको ही भुगतना पड़े।
मुस्लिम रहनुमाओं और मुस्लिम वोट की सियासत करने वालों से भी आग्रह है कि अब बहुत हो चूका अब और इन्हें गाजर-मूली न बनाओ.इनकी तालीम और रोज़ी का इंतजाम करो अगर करना ही चाहते हो कुछ .

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

बोलना चाहता हूँ प्रतिबंधित कर दिया जाता हूँ

इधर इतना कुछ टूटा, इतना बिखरा कि सँभालते- सँभालते .बार-बार इक शे'र जेहन में आता रहा :

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

जिस इलाके में रहता हूँ, इसे ही ख़ास मानसिकता में पल्लवित पत्रकार आतंकवादियों का अड्डा बताते हैं।
अनगिनत पढने-लिखने वाले छात्रों की गिरफ्तारी हो चुकी है।
दहशत और संशय की तलवार अब भी गर्दनों पर लटकी है .
पुलिसिया बर्बरता की ताब न लाकर कोई भी नया मास्टर-मायंड हो सकता है।

ईद आयी ज़रूर पर मुहर्रम की तरह गुज़र गयी।
यही हाल दशहरा-दीपावली का होगा।
जो कुछ हुआ या जो कुछ दिल्ली से लेकर साबरकांठा , मालेगाँव , कर्नाटक और कंधमाल में हो रहा है, बस यही कहने का मन है:
हे ईश्वर इन्हें क्षमा मत करना क्योंकि ये अच्छी तरह जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं।

साथियों ज़रा हटकर दो कविता पेश-खिदमत है:



हम सच बोलते
वोह झूठ की तुरपाई कर देते।

हम घरोंदे के लिए तिनके सहेजते-संवारते
वोह उसे शो-पीस के लिए सरिया लेते।

हम ब्यान देते
वोह चुप रहते।
वोह झूठ बोलते
सब वाह! वाह!
कह उठ ते ।



कविता लिखना चाहता हूँ
शर्त रख दी जाती है
मुसलमान हो तो
कुरआन-हदीस पर मत लिखना।

हिंदू हो तो
अयोध्या छोड़कर सारी रामायण
बांच सकते हो।

ईसाई हो तो
ईसा के पिता का
सवाल नहीं उठाओगे ।

मैं बोलना चाहता हूँ
तो प्रतिबंधित कर दिया जाता हूँ।
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