बुधवार, 27 जनवरी 2010

मेरे न रहने पर

मेरे न रहने पर
खिड़की पर चाँद अटक जायेगा
कमरे में रौशनी छिटका करेगी
कुछ न कुछ चमक रहा होगा
मेज़ पर बिखरे पन्ने
फर्श पर खिलौने



टिफिन तैयार कर स्त्री पति को सौंपेगी
समय पर खा लेने की ताकीद के साथ



हर पुरुष की पत्नी और प्रेमिका
विश्व की सबसे सुन्दर कृति होगी
देह बिना प्रेम अपूर्ण माना जायेगा
स्त्री बस देह हो जाया करेंगी



कामकाजी स्त्रियों को उसी तरह घूरा करेंगे लोग
हलकी मुस्कान के बूते भीड़ भरी बस में भी
उन्हें जगह ज़रुर मिल जाया करेगी

घरों में अखबार तब भी आया करेगा
हाँ, वो आल इन कलर हो सकता है
अपना हिंदुस्तान तब भी
धूसर मटमैला और बदरंग रहेगा
स्याह को सफ़ेद करने की तरकीबें बताई जाएँगी
चंद ज़िन्दगी आल इन कलर होगी
मेरे न रहने पर



चेहरे की लकीरें हाल बता रहीं होंगी
कोई किसी को तक रहा होगा
कोई सड़क की तरफ़
जल्दबाजी की ज़िद ठाने अपने नंबर की बस के
इंतज़ार में खड़े लोग दुःख और सुख लपेटे होंगे


खिड़की वाली सीट पर बैठा होगा अधेड़
शायद सुंदर -आकर्षक लड़की उसके पास बैठे या स्वस्थ महिला ही
तब शादीशुदा औरतें ज्यादा आकर्षित करती हैं
खिड़की से झांकता हुआ पार्क या बस स्टाप पर गुटुरगूं करते युगल को
देख कबाब बन धुंआ उगलता जाएगा
उसका विश्वास लबरेज़ होगा कि  सारी स्त्रियों को
सिर्फ़ वही तृप्त कर सकता है


क्रांतिकारी संगठन से जुड़ा कवि
सरकारी महकमे में आ टिकेगा
तीन घंटे के अनुबंध पर सहायक से आठ घंटे की चाकरी
कराना उसका धेय  नहीं, विवशता होगी
अधिकाँश समय अपनी कवितायें उससे टाइप कराएगा जो
अन्याय, अत्याचार, शोषण के विरुद्ध होंगी
सेठाश्रयी अखबार की पचास हज़ार की नोकरी से हटा दिए
जाने का संताप उसे पल -पल सालता रहेगा
 

बस भाड़े से बचा मासिक साढ़े पाँच हज़ार सही
सहायक की अदद ज़रूरत होगी
पहली बार उसे पत्नी का जेवर बंधक रखना पड़ेगा
सारे क़र्ज़ अदा करने के बाद वो खुश खुश
घर लौटेगा बाज़ार से मछली लेकर

स्थितियों की सडांध
तेल में तैरने , उफनने , पकने के बावजूद
समुद्री मछली की सडांध से पराजित हो जाया करेगी
भर पेट भोजन कर पत्नी से लिपट वो खर्राटे लेने लगेगा


अचानक सरकारी अफसरों और धनाड्यों की रचनाएँ महान हो जाएँगी
साहित्य में सब कुछ पहली बार होने लगेगा
बुलंद पिंजड़े में बंद सुंदर और भरी -पूरी
लगती सेठों की पत्नियाँ बाहर निकलते ही
नए सीमोनवाद का जयघोष करने लगेंगी

हॉउस जर्नल में क्रांति का बिगुल फूँक दूसरे लोग
दम लेने के लिए राजधानियां आने की जुगत भिड़ाएंगे 


क्रांतिकारी लेखक चर्चित प्रकाशक के विरुद्ध
षड़यंत्र में शामिल रहकर किताब वहीँ से छपवाकर गौरवान्वित होगा
प्रकाशक को ऐसे आयोजनों की सूचना देगा
जहाँ फलां -फलां लोगों से मिलना हो
जो उसके स्याह -सफ़ेद में सहायक होंगे

दिन भर की मजदूरी के बाद घर लौटा पिता
बच्चे को छाती से चिपटायेगा
उसके गर्म स्पर्श से संगृहीत करेगा ऊष्मा ,उर्जा
पिता की तरह टांगो पर टांग चढाये
बच्चा अख़बार देखेगा
पिता पुलकित होगा मंद-मंद


दूब, कुकरौन्दा , पुटुस, रेंड, ढेंकी, चक्की, कोल्हू, सिलबट्टा
टमटम, पवनचक्की, कोलसार, जगत
जैसे अनगिनत शब्द शब्दकोशों से भी हटा लिए जाएंगे
किसी परिशिष्ठ पर कौव्वा, कबूतर, बुलबुल, उल्लू, पीपल, बरगद, बघ्घी, बैलगाड़ी
जैसे शब्द दिखलाई पड़ जाएंगे

नीम विदेशों में उगा करेगा


सत्य, न्याय, विश्वास, श्रद्धा, नैतिकता, संवेदना,
जैसे शब्द ग्रंथों में सिमट कर रह जाएंगे
विलोम के लिए कभी कभार इनकी जरुरत पड़ा करेगी


देशवासी अंबेडकर नगर, श्रीराम कॉलोनी और मुस्तफाबाद
जैसी जगहों में रहने की कोशिश करेंगे
उनका अपना फासिले-शहर या अपार्टमेंट्स भी हो सकता है
दरअसल उन्हें अपने अपने धार्मिक, जातीय और क्षेत्रिय समूहों की तलाश होगी
धार्मिकता से उतना ही दुराव
धर्मान्धता से लगाव  


भगवान रंगीन परदे पर अवतरित होगा
स्वर्ण सिंहासन पर बैठ, देगा प्रवचन
भक्तजनों में महिलाओं की संख्या ज्यादा होगी
धर्म का नया संस्करण धड़ाधड़ लोकार्पित होगा


तमाम खलनायकी के बावजूद उसका
जयगान होगा समूचे विश्व में
उसके देश का पेय  गंगाजल और आब-ए-ज़मज़म
की तरह पवित्र और संग्रहणीय समझा जाएगा


मर खपने तक सभी बंदरिया की तरह अपने अपने गांव कस्बे
को चिपकाए शहर में रहेंगे
शहर से गरीबी हटा दी जाएगी

दरअसल गरीबों के लिए कोई जगह नहीं बचेगी
धीरे धीरे वे गांवो में वापस जाएंगे
हर तरफ अमीरी-अमीरी का शंखनाद होगा

कुछ लोगों को सुंदर माँ, बहन, बेटियों का आसरा रहेगा
ऐसे भाग्यवानों का शहर सम्मान करेगा

विरोधियों को विडंबना का मुकुट पहना दिया जाएगा
कवि गवइये के संग थिरक राजसी महफिलों की शोभा बढ़ाएंगे


कश्मीर के हिंदू की अरदास होगी :
अगले जन्म मोहे हिंदू ना कीजो
गुजरात के मुसलमान अपने होने पर शक किया करेंगे.



[पिछले वर्ष इस कविता को रविवार ने जगह दी थी.लेकिन आप लोगों के बीच आज पहली बार पूरी कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ.]


 

Indian Love PoetryThe Oxford Anthology of Modern Indian PoetryAlfaaz - In the World of Gulzar's Poetry 

रविवार, 24 जनवरी 2010

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

-बिस्मिल अज़ीमाबादी!



जी हाँ!! इस मशहूर क्रांतिकारी पंक्ति जिसने अंग्रेजों की चूलें हिला दीं थीं. जिसे गुनगुनाते हुए  अपना सर्वस्व होम करना देशवासी अपना फ़र्ज़ समझते थे. इस ग़ज़ल के रचयिता आप ही हैं. दरअसल ख्यात देशभक्त जिनपर हमें नाज़ है, रामप्रसाद बिस्मिल को ये ग़ज़ल बहुत पसंद थी और खबर ये भी है कि इस ज़मीन पर आपने भी ग़ज़ल लिखी थी , उसमें बिस्मिल अज़ीमाबादी के मिसरे यानी पहली पंक्ति का उपयोग भी किया था.तो साथियों धीरे-धीरे ये पूरी ग़ज़ल ही उनके नाम होंकर रह गयी.बहुत दिनों से लोग इस पर काम कर रहे थे.अली सरदार जाफरी ने भी इन्हें प्रकाश में लाने की सार्थक पहल की.
लेकिन बिस्मिल अज़ीमाबादी या उनके परिवार के लोगो की इसमें रुचि ज्यादा नहीं थी. उनका दीवान हिकायत-ए-हस्ती भी बहुत बाद  [1980] में प्रकाशित होंकर आ सका.

मेरा जन्म जिस कस्बाई शहर शेरघाटी में हुआ , हमारे मोहल्ले में ही बिस्मिल अज़ीमाबादी की बेटी की शादी काजी हाउस के अहमद जुबैर [कृषि वैज्ञानिक]से हुई थी. सो मेरा झुकाव  ज़ाहिर है, बिस्मिल अज़ीमाबादी की रचनाओं को ढूंढ-ढूंढ कर पढने में रहा.



इस गुमनाम रहे शायर का असली नाम सैयद शाह मोहम्मद हसन उर्फ़ शाह झब्बो था . तखल्लुस  बिस्मिल  रखा . पटना के बाशिंदे थे सो उर्दू की परम्परानुसार अज़ीमाबादी !!उर्दू-शायरों का ये स्थान-प्रेम मुझे बहुत अच्छा लगता है. यूँ जन्म आपका पटने  से तीस किलोमीटर पर स्थित गाँव खुसरू पूर में हुआ. लेकिन दो साल के रहे होंगे कि  पिता चल बसे.शिक्षा-दीक्षा का दायित्व नाना सैयद शाह मुबारक हुसैन ने संभाला. पढने-लिखने के लिए कई जगह ले जाए गए, लेकिन जिसे नामी-गिरामी सनद कहा जाता है, हासिल न कर सके. हाँ समकालीन  रिवाज की दो भाषाएँ अरबी और फ़ारसी  का ज्ञान अवश्य ग्रहण कर लिया. उर्दू तो इनकी रगों में पैवस्त थी. पढ़ते क्या ख़ाक!! मन तो मुल्क की आज़ादी के लिए मचलता था और ज़हन ग़ज़ल की तलाश में यत्नशील. शुरुआत में शाइरी की इस्लाह शाद अज़ीमाबादी से लेते रहे. इनके बाद मुबारक अज़ीमाबादी को उस्ताद माना.तब इनकी उम्र महज़ 20 साल के आसपास रही होगी, 1921 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इन्होंने  इस ग़ज़ल को सुनाया था. अगले साल जब 1922 में काज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार ने अपनी पत्रिका ‘सबाह’ में इस ग़ज़ल को छापा, तो अंग्रेज़ी हुकूमत तिलमिला गई। सभी अंक ज़ब्त कर लिए गए थे.

अब इस संक्षिप्त भूमिका के बाद आप इनकी ख्यात ग़ज़ल से खुद रूबरू हों:

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजूए कातिल में है 

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत में तेरे ऊपर निसार
ले तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल मैं है

आज फिर मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार
आयें वह, शौक़े-शहादत जिनके-जिनके दिल में है

वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्यों बताएँ क्या हमारे दिल में है  

अब न अगले वलवले हैं और न वह अरमाँ की भीड़
सिर्फ़ मिट जाने की इक हसरत दिले-बिस्मिल में है


[बिहार बोर्ड के कक्षा नौवीं के उर्दू के पाठ्यक्रम में पुस्तक द्रखशाँ   में ये ग़ज़ल शामिल की गयी है.यही कहा जा सकता है, देर आयद दुरुस्त आयद! ]
स्तम्भ:व्यक्तित्व 


Masterpieces of Modern Urdu PoetryPoems from Iqbal: Renderings in English Verse with Comparative Urdu TextMirza Ghalib: Selected Lyrics and Letters

रविवार, 17 जनवरी 2010

.रमेश बत्रा .:....मौत/खुदकशी/हत्या


जिंदादिल इंसान और उम्दा लेखक का जाना !

बाबूजी के पास सुबह-सुबह पहुंचा.सहारा उठाया : रमेश बत्रा नहीं रहे!
सहसा विशवास नहीं हुआ. लेकिन दिल्ली की कई तल्खियों की तरह यह भी स्वीकारना विवशता थी.कभी लगता है, बत्रा जी ने आत्महत्या की.एकबारगी नहीं, धीरे-धीरे!खुद को मौत की जानिब धकेलते रहे.तुरंत ख्याल हुआ,पाश या सफ़दर शहीद माने जाते हैं.लेकिन क्या रमेश बत्रा! हकीकत तो यही है कि उनहोंने शराब में खुद को डुबोकर ख़ुदकुशी नहीं की, बल्कि वो भी मारे गए, समय के क्रूर पंजों ने उन्हें भी निगल लिया, आहिस्ता-आहिस्ता निचोड़ते  हुए.मारे गए,अपने ही लोगों के हाथों!!

लेखक-पत्रकार बिरादरी के छद्म से वह तंग आ चुके थे.उनके काइयांपन और मौकापरस्ती से आहत  थे.लेकिन ज़ख्म उन्हें इतने गहरे, इतने तिक्त मिले कि, इनसे संघर्ष करने की बजाय अपनी इहलीला समाप्त करना आपने उचित समझा!
कमलेश्वर जैसे लेखक उनसे बहुत स्नेह रखते थे,ऐसा बत्राजी ने मुझसे कहा था.लेकिन यह शे'र भी तो है:

साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर 
अफ़सोस तो करते हैं, इमदाद नहीं करते!

एक अच्छा फ़नकार  ! जिसके कलम में गज़ब का जादू था!आँखों में लबालब संभावनाएं! ललाट पर तेज! कुछ  कर गुजरने की ऊर्जा! और विचारशील मस्तक! सारिका में उपसंपादक, सन्डे मेल में सहायक संपादक, नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता , लघु-कथा आन्दोलन के संस्थापकों में से एक . पजाबी कथा-साहित्य की श्रेष्ठ रचनाएं उनहोंने बज़रिये अनुवाद हिंदी में प्रस्तुत की . लघु-कथा के अलावा उनहोंने कई उम्दा कहानी भी हिंदी-जगत को दी, जो संग्रहणीय है.

पचास वर्ष भी तो अभी पूरे नहीं हुए थे, उनके! बहुत कुछ उन्हें करना था.बच्चे भी है.काफी दिनों से परिवार से अलग रह रहे थे.प्रेम-विवाह किया था.

शाम हीरालाल नागर के यहाँ पहुंचा.वह भी उद्विग्न दिखे.कई मार्मिक संस्मरण सुनाया, हम दोनों की आँखें पनीली होती रहीं.उन्हें रात ही खबर मिल गयी थी.

बत्राजी से मेरी मुलाक़ात कथादेश का दफ्तर-कम-हरिनारायण जी  के घर पर हुई थी.[कमोबेश दो माह मैंने बतौर उपसंपादक वहाँ काम किया है.] पहले तो मैं उन्हें लक्ष्मीप्रसाद पन्त समझता रहा.गौर वर्ण , लंबा चौड़ा कंधा, जहां हम जैसे अभागे रोया करते.कंधा ज़रा झुक जाता जब आप खड़े होते.सामने के बाल साफ़.धीरे-धीरे परिचय हुआ.बहुत जल्द ही हमारे आत्मीय हो गए.यह मेरी नहीं उनकी खूबी का असर था.नाम तो सुन ही रखा था.कहानियां भी पढ़ रखी  थीं.सारिका और सन्डे मेल की प्रिंट लाइन में नाम भी देख रखा था.रहना क्या वह  कथादेश के कार्यालय सहायक-कम-घरेलु चाकर नवीन के साथ एक गोदाम नुमा कमरे में सोया करते थे.और अक्सर दोपहर तक वहाँ मिल जाते.हरिनारायण जी  कहते, मैं उनसे ज़्यादा संपर्क न रखूं.विश्वास करने लायक आदमी नहीं हैं.लेकिन मुझे वहउतने ही अधीक विश्वसनीय लगे.जितना कोई किसी का अपना हो सकता है.

लोग कहते हैं कि एक समय बत्राजी ने विभांशु दिव्याल और हरिनारायण जी की पर्याप्त सहायता की थी.और ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा थी जिनकी उनहोंने मदद की थी.जब उक्त दोनों सज्जन दिल्ली आये थे तो नए थे.और रमेश बत्रा स्थापित नाम था.राजधानी के प्रेस और साहित्यिक गलियारे का.कथादेश के शुरूआती दौर में उनका काफी सहयोग रहा.

आख़री समय बहुत पीने लगे थे.कभी मैं कहता,
बस!!
शहरोज़ सब ठीक हो जाएगा!
हां भैया क्यों नहीं!

उनहोंने इधर लिखना-पढना बिलकुल स्थगित कर रखा था.यह स्थगन ज़िन्दगी के साथ भी था.

मुझे लगता है कि  परिवार, समाज के अलावा कहीं न कहीं लेखक बिरादरी भी उनकी असामयिक मौत की जिम्मेवार रही है.हरिनारायण जी बहुत चिढ़ते थे.उन दिनों नवीन छुट्टी पर था.अफसर-मित्र की ज्योतिष-पत्रिका के दफ्तर में एक मेज़ कथादेश को भी नसीब हो गयी थी.हरिनारायण जी दोपहर बाद वहीँ निकल जाते.फ्लैट की ताली मुझे विभान्शुजी के घर पर देनी पड़ती थी.और यह बात मुझे बत्राजी को बताने की मनाही थी.ऐसा शायद इसलिए कि  हरिनारायण जी नहीं चाहते थे कि  बत्रा जी उनके यहाँ और रात गुजारें.मुझे ऐसा करना हमेशा गुनाह लगता रहा . लेकिन नया -नया दिल्ली आया युवक और पहली नौकरी.इस पेच-ख़म से अनजान था.

और एक दिन बत्राजी वहाँ से निकल गए.वहाँ के बाद कहाँ गए, मुझे अंत तक मालूम न हो सका.अंतिम मुलाक़ात नवभारत टाइम्स में हुई.मुंह से भभका फूटा .इधर-उधर की बात-चीत तो होती रही.पर मैं यह न पूछ सका कि वह इन दिनों कहाँ क़याम-पज़ीर हैं.

मुझे नींद नहीं आ रही है!!

और हंसी भी आ रही है.कल शोक सभा होगी.और लोग टेसुए बहायेंगे.ज़ार-ज़ार!!!

[वरिष्ठ लेखक विष्णुचंद्र शर्मा जिन्हें मैं सहज ही बाबूजी कहता हूँ.इस क्रूर शहर में मुझे उन्हों ने ही आश्रय दिया था, जब अपने भी मुहं घुमाए फिर रहे थे.खैर यह अवांतर प्रसंग है.उनदिनों मैं उनके यहाँ ही रहा करता था.डायरी का अंश है, जिसे उसी दिन यानी १६.३.१९९९ रात बेचैनी के आलम में मैंने लिखा था.] स्तम्भ :संस्मरण/व्यक्तित्व


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