बुधवार, 31 दिसंबर 2008

ऐसा नया साल हो!







समय खुशियों का नहीं , सो इक निवेदन अवश्य है, बक़ौल शकील शम्सी :

गुल कर गए कितने ही चरागों को धमाके
मुमकिन हो तो इस साल चरागाँ नहीं करना
हैं खून से रंगीन हर इक शहर की गलियाँ
इस दौर में तुम जश्न का सामां नहीं करना


लेकिन हम भारतीय जन्मजात उत्सव-धर्मी हैं। सो नेक तमन्नाओं के साथ नए साल के लिए कुछ दुआएं ,कुछ विशवास, कुछ संकल्प:


सब की फरयाद हो
गाँव शाद-बाद हो
इरादा चट्टान हो
खुला आसमान हो

ज़िन्दगी खुशहाल हो
ऐसा नया साल हो

हर होंट प गुलाब हो
पके आम-सा शबाब हो
खूबसूरत मकान हो
मुट्ठी में जहान हो

ज़िन्दगी खुशहाल हो
ऐसा नया साल हो

हर गाल प गुलाल हो
रिश्ता न मुहाल हो
माँ का ख्वाब हो
आँगन शादाब हो

ज़िन्दगी खुशहाल हो
ऐसा नया साल हो

कोयल ka साज़ हो
सबकी आवाज़ हो
मसला न सवाल हो
हर हाथ में कुदाल हों


ज़िन्दगी खुशहाल हो
ऐसा नया साल हो

नदी की रवानी हो
न कभी बदगुमानी हो
हर सोच ताबांक हो
वक्त न हौलनाक हो

ज़िन्दगी खुशहाल हो
ऐसा नया साल हो




















गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

आतंक के विरुद्ध जिहाद!


देश के लिए कुर्बान मुजाहिदीनों को सलाम!


पाठक चौंक रहे होंगे । मैं क्या बेवकूफाना हरकत कर रहा हूँ.सच मानिए उन आतंकवादियों से लड़ते हुए जामे-शहादत पी जानेवाले वो तमाम जांबाज़ मुल्क के सिपाही, अफसर और आम नागरिक ही मेरी नज़र में सबसे बड़े मुजाहिदीन हैं।


मुजाहिदीन अर्थात जिहद, प्रतिकार, संघर्ष करनेवाला
, ऐसा संघर्ष जो आंतंक,अन्याय,असत्य,ज़ुल्म और अत्यचार के विरुद्ध हो। ऐसे मकसद के लिए जद्दोजिहद जिसका ईमान इंसान की जान बचाना और ज़मीन पर अमनो-अमन कायम करना हो।


अबुलकलाम आजाद, भगत सिंह, अशफाक, रामप्रसाद, विद्यार्थी,नेहरू, सुभाष जैसे अनगिनत लोग हुए जिन्होंने अंग्रेजों से मुल्क को आज़ादी दिलाने के लिए जिहाद किया.और आज इतिहास उन्हें मुजाहिदे-आज़ादी कहता है।
और मुंबई में शहीद हमारे देशवासियों ने हमें विदेशियों की नापाक साजिश से मुक्त कराने के लिए जिहद किया और शहीद तो हुए लेकिन उन्हों ने ये विश्व को दिखा दिया की तिरंगा झुकनेवाला नहीं है।
समूची इंसानियत को बंदूक की नोक पर नचाने का सपना देखने वाले इस्लाम समेत किसी भी धर्म-सभ्यता में मुजाहिदीन नहीं कहे जा सकते।
वे आतंकवादी हैं, उग्रवादी हैं, दहशतगर्द हैं।
उन्होंने कठोर से कठोर सज़ा मिलनी चाहिए।
उन्हें मज़हब और धर्म का इस्तेमाल करने की इजाज़त किसी भी कीमत पर नहीं मिलनी चाहिए.इस्लाम ऐसे दहशतगर्दों के लिए कठोरतम सज़ा की हिमायत करता है.मुस्लिम परिवार मेंजन्म लेने के कारण इस्लाम की थोड़ी-बहुत जो समझ , और संस्कार ने जो तमीज दी है , उसके आधार पर मैं सबसे पहले मुसलामानों से अपील करता हूँ की आप आगे आयें और इस्लाम को बदनाम करनेवाले इन दहशतगर्दों के विरुद्ध जिहाद करें.अपने सभी संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए, पूरी शक्ती के साथ आतंकवादियों का मुकाबला कीजिये,आतंकवाद की कमर तोड़ दीजिये.आपके प्यारे नबी की हदीस है ; वतनपरस्ती ॥ अपने वतन की तरफ़ बुरी नज़र से देखने की कोई हिमाक़त करे तो उसकी आँख फोड़ दीजिये।

जिहाद वो नहीं जैसा नाम-निहादी कर रहे हैं बल्कि उनके ख़िलाफ़ खड़े होना जिहाद है।
इस्लाम में जिहाद

बे-ईमानी के विरुद्ध ईमानदारी के लिए संघर्ष।
असत्य के विरुद्ध सत्य के लिए संघर्ष।
अत्याचार, ज़ुल्म, खून-खराबा और अन्याय के विरुद्ध सद्भाव, प्रेम, अमन और न्याय के लिए संघर्ष।


अब कुरान क्या कहती है:
...जो तुम पर हाथ उठाए , तुम भी उसी तरह उस पर हाथ उठा सकते हो,अलबत्ता ईश्वर से डरते रहो और यह जान रखो कि ईश्वर उन्हीं लोगों के साथ ही जो उसकी सीमाओं के उलंघन से बचते हैं।
२:१९४
....उन लोगों से लड़ो,जो तुमसे ladte हैं,परन्तु ज्यादती न करो।अल्लाह ज्यादती करने वालों को पसंद नहीं करता.
२:१९०
....और यदि तुम बदला लो तो बस उतना ही ले लो जितनी तुम पर ज्यादती की गयी हो. किन्तु यदि तुम सबर से काम लो तो निश्चय ही धैर्य वालों के लिए यह अधीक अच्छा है।
१६:२६


शान्ति, सलामती इस्लाम की पहचान रही है.जभी आप एक-दूसरे से मिलने पर अस्सलाम अल्लैकुम यानी इश्वर की आप पर सलामती हो , कहते हैं.आप कुरान की ये आयत जानते ही हैं:
जिसने किसी की जान बचाई उसने मानो सभी इंसानों को जीवनदान दिया।
५:३२


मुंबई के हादसे पर इंसानियत आपसे सवाल करती है.यूँ देश के तमाम मुस्लिम sansthaaon, इमामों और उल्माओं ने घटना की कठोर निंदा के साथ दोषियों को सख्त से सख्त सज़ा की मांग की है.समय-समय पर एक मुस्लिम संघठन आतंकवाद-विरोधी जलसा वर्ष-भर से जगह-जगह आयोजित करता रहा है.दूसरे प्रमुख संगठन ने अभी अपना अमन-मार्च ख़त्म किया है.लेकिन महज़ निंदा और जलसे जुलुस से अब कुछ नहीं होने वाला अब ज़रूरत खुलकर आतंकवादियों का मुकाबला करने की है.पास-पड़ोस में पनप रही ऐसी किसी भी तरह की मानसिकता को ख़त्म करने की.सरकार और पुलिस को सहयोग करने की.संसार के सामने प्रमुख चुनौतियों में से एक है आतंकवाद!जिसका समूल नाश बेहद ज़रूरी है॥ वसुधैव कुटुंब बकम .ये हमारी विरासत है।
और पगैम्बर मुहम्मद की ये हदीस हमारा ईमान :
सम्पूर्ण स्रष्टि इश्वर का परिवार है.अतःइश्वर को सबसे प्रिय वो है जो उसके परिवार के साथ अच्छा व्यव्हार करे।


शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

मुसलमान जज़्बाती होना छोड़ें



मायूस न हों और आक्रोशित न हों।
-हज़रत मोहम्मद स.




विभाजन के ठीक वर्ष-भर बाद भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा एक सर्वेक्षण कराया गया था। यह सन् १९४८-४९ की बात है। सात बड़े शहरों यथा मुंबई, कोलकाता, चेन्नई , अहमदाबाद, पटना, अलीगढ और लखनऊ में रहने वाले मुसलामानों से बात-चीत की गई थी। इस सर्वे में एक सहयोगी गार्डन मर्फी यूनेस्को की ओर से थे। जिन्होंने बाद में इक किताब लिखी इन दी मायन्ड्स ऑफ़ मेन , जिसमें उन्होंने लिखा :





आज का मुसलमान डरा हुआ है, अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित रहता है। सरकार उसके जान-माल की रक्षा नहीं कर पा रही है। नौकरियों और रोज़गार में उसके साथ भेद-भाव बरता जा रहा है। राजनितिक क्षेत्र में उसकी शक्ति और महत्त्व को ख़त्म किया जा रहा है।




आज इस हालत में बहुत ज्यादा तब्दीली नहीं आई है।




आज जिस असमंजस की दशा में वो जी रहा है। ऐसी हालत में कमोबेश हर कमज़ोर वर्ग रहता है। जो क़ौम शिक्षा और आर्थिक मामले में आत्म निर्भर रहती है, उसे बहुत जल्दी जज़्बात में नहीं भड़काया जा सकता। लेकिन मुसलामानों का दुर्भाग्य है कि इस भारतीय उपमहाद्वीप में वो इस क्षेत्र में अभी भी पिछडा है। अपवाद जनाब कहाँ नहीं होते हैं। यही वजह कि उसे हमेशा मज़हब के नाम पर बरगलाया जाता रहा है। भारत में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक हुकूमत है। लेकिन ऊंचे मकाम पर बैठे लोगों की नियत में कहीं न कहीं खोट कभी-कभार देखाई दे जाता है। और इसी खोट को चालाक लोग मुद्दा बना देते हैं। और मुस्लिम युवा सड़क पर चला आता है। विरोधी शक्तियां इसी फिराक में रहती हैं कि कब उन्हें इक बहाना मिले। दरअसल इन शक्तियों का भी अपना गणित-लाभ रहता है। इन दो-ढाई दशक में ऐसी शक्तियों को खाद्य-पानी बहुत मिला है। और इधर अल्पसंख्यकों को लगातार हतोत्साहित करने उन्हें किसी न किसी बहाने परेशान करने कि घटनाएं बढ़ी हैं। और इक शायर तुफैल लखनवी कहता है:


ऐसा होता है क्या निज़ामे-दस्तूर


हर तरफ़ क़त्ल-खून दंगा है


अब तो हम्माम में सियासत के


जिसको देखो वो शख्स नंगा है











आजकल फिर कुछ सर-फिरों की बदौलत पैदाहालत का लाभ सियासत उठाना चाह रही है।ये सियासी दल जहाँ एक डराता है तो दूसरा उसका विस्तार करता है, हमदर्दी जतलाने की कोशिश करता है । और मुसलामानों में असुरक्षाबोध को बढ़ाने में कट्टरवादी और उदारवादी दोनों तरह के लोग शिरकत करते दिखलाई देते हैं। जबकि ये कथित हमदर्दियां बहुत दिनों तक उसमें ऊर्जा का संचार नहीं कर पातीं। फिलहाल फिर खौफ पैदा की जाने की कोशिश की जा रही है। ये सही है कि आप के साथ ग़लत हुआ है , आपकी राष्ट्रीयता पर सवाल किए जा रहे हैं। बावजूद इसके आप होश से काम लें , अपना जोश कायम रखें।





हुजुर-अकरम मोहम्मद स. की हदीस याद रखिये जब वो ऐसे वक्त कहा करते थे:





मायूस न हों और आक्रोशित न हों।





आप मायूस इसलिए न हों कि अल्लाह आपके साथ है। हमारा मुल्क हमारी हिफाज़त करेगा। यहाँ के कानून पर यकीन है। और अभी मुल्क सेकुलर इसलिए है कि ज़्यादातर आबादी ईमानदार है। कानून की कुर्सियों पर भी सभी बेईमान नहीं बैठे हैं। आप अपने हकों के लिए , इन्साफ के लिए अमन के साथ अपना जद्दोजिहद चलाईये। और देश के सच्चे और जनपक्षधर लोगों को साथ रखिये। आपके नेताओं ने ही आपको हमेशा लूटा है। उनके नारों के पीछे न पड़िये।





आपको हमेशा इस्लाम के नाम पर उल्लू बनाया गया है। इन नेताओं ने रोज़ी-रोटी जैसी मूलभूत समस्याओं के लिए कभी राष्ट्रिय आन्दोलन खड़ा किया ? सच्चर-सच्चर चिल्लाते रहे , कभी आपके नेताओं ने सरकारी गद्दी छोड़ी?

मुसलमानों का दुर्भाग्य रहा की उसने किसी एक का नेतृत्व कभी स्वीकार नहीं किया. अपने बीच से उसने कभी एक राष्ट्रिय क़द-काठी का नेता पैदा नहीं किया. मौलाना आजाद को छोड़कर. जिसमें सलाहियत रही उसे समय ने खारिज कर दिया. मुसलामानों के नेता शुरू से ही गैर-मुस्लिम रहे . पंडित नेहरु के जादुई शख्सियत का असर बरसों तक उन पर रहा, फिर इसकी जगह इंदिरा गाँधी ने ली. उसके बाद हेमवतीनंदन बहुगुणा , चरण सिंह , वी.पी. सिंह तथा मुलायम सिंह यादव और लालू यादव क्रमश:आते गए
लेकिन उनकी हमदर्दी उतनी ही रही जितनी हम पड़ोस के बच्चे के साथ निभाते हैं। अभी भी सभी सियासी जमात मुसलामानों को अपनी तरफ लाने में जी-जान से जुड़े हुए हैं. लेकिन सत्ता-प्राप्ति के बाद इनकी ये नाम-निहादी हमदर्दी भी काफूर हो जाती है.और इनकी टिकट पर मुस्लिम वोटों के बूते जीते मुस्लिम रहनुमा का किरदार भी अन्य देसी नेताओं से अपेक्षकृत बहुत अच्छा नहीं रहता. इनका भी कोई उसूल नहीं कायम रह पाता है , और बक़ौल मासूम गाज़ियाबादी:

जहां रहबर उसूले-रहबरी को छोड़ देता
वहीँ लुटते हुए देखे हैं अक्सर कारवाँ मैंने

प्यारे भाईओं, आप अपना उसूल न भूलें जभी कारवाँ को बचाया जा सकता है। आपने अलीगढ , मुरादाबाद, भिवंडी, मुरादाबाद जैसे अपने औद्योगिक नगरों को जलते देखा, इक तहजीब जिसमें गंगा-जमना का पानी छल-छलाता था, उसे मिस्मार होते देखा, इक सूबे में हुक्मरान की बजती बांसुरी देखी और गाँव-शहर धुंआ उगलते रहे.....आपने सब देखा ...लेकिन आप कुछ दिनों के बाद फिर अपनी जद्दोजिहद में लग गए, रोज़ी-रोटी के लिए जुट गए. पढने-लिखने और नौकरी-चाकरी के लिए दौड़-धूप करने लगे. आपने गर सब्र किया तो उसका फल भी आपको ही मिलेगा.

आप जज़्बाती नारों से गुरेज़ करें। कोई ऐसा क़दम न लें जिसका खामियाजा आपको ही भुगतना पड़े।
मुस्लिम रहनुमाओं और मुस्लिम वोट की सियासत करने वालों से भी आग्रह है कि अब बहुत हो चूका अब और इन्हें गाजर-मूली न बनाओ.इनकी तालीम और रोज़ी का इंतजाम करो अगर करना ही चाहते हो कुछ .

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

बोलना चाहता हूँ प्रतिबंधित कर दिया जाता हूँ

इधर इतना कुछ टूटा, इतना बिखरा कि सँभालते- सँभालते .बार-बार इक शे'र जेहन में आता रहा :

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

जिस इलाके में रहता हूँ, इसे ही ख़ास मानसिकता में पल्लवित पत्रकार आतंकवादियों का अड्डा बताते हैं।
अनगिनत पढने-लिखने वाले छात्रों की गिरफ्तारी हो चुकी है।
दहशत और संशय की तलवार अब भी गर्दनों पर लटकी है .
पुलिसिया बर्बरता की ताब न लाकर कोई भी नया मास्टर-मायंड हो सकता है।

ईद आयी ज़रूर पर मुहर्रम की तरह गुज़र गयी।
यही हाल दशहरा-दीपावली का होगा।
जो कुछ हुआ या जो कुछ दिल्ली से लेकर साबरकांठा , मालेगाँव , कर्नाटक और कंधमाल में हो रहा है, बस यही कहने का मन है:
हे ईश्वर इन्हें क्षमा मत करना क्योंकि ये अच्छी तरह जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं।

साथियों ज़रा हटकर दो कविता पेश-खिदमत है:



हम सच बोलते
वोह झूठ की तुरपाई कर देते।

हम घरोंदे के लिए तिनके सहेजते-संवारते
वोह उसे शो-पीस के लिए सरिया लेते।

हम ब्यान देते
वोह चुप रहते।
वोह झूठ बोलते
सब वाह! वाह!
कह उठ ते ।



कविता लिखना चाहता हूँ
शर्त रख दी जाती है
मुसलमान हो तो
कुरआन-हदीस पर मत लिखना।

हिंदू हो तो
अयोध्या छोड़कर सारी रामायण
बांच सकते हो।

ईसाई हो तो
ईसा के पिता का
सवाल नहीं उठाओगे ।

मैं बोलना चाहता हूँ
तो प्रतिबंधित कर दिया जाता हूँ।

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

अनपढ़ क्यों हैं मुस्लिम औरतें

तुमने अगर इक मर्द को पढाया तो मात्र इक व्यक्ति को पढाया। लेकिन अगर इक औरत को पढाया तो इक खानदान को और इक नस्ल को पढाया।

ऐसा कहा था पैगम्बर हज़रत मोहम्मद ने ।
लेकिन हुजुर का दामन नहीं छोडेंगे का दंभ भरने वाले अपने प्यारे महबूब के इस क़ौल पर कितना अमल करते हैं।
भारत में महिलाओं की साक्षरता दर ४० प्रतिशत है,इसमें मुस्लिम महिला मात्र ११ प्रतिशत है। हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने वाली इन महिलाहों का प्रतिशत मात्र २ है और स्नातक तक का प्रतिशत ०.८१
मुस्लिम संस्थाओं द्वारा संचालित स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर मुस्लिम लड़कों का अनुपात ५६.५ फीसदी है, छात्राओं का अनुपात महज़ ४० प्रतिशत है। इसी तरह मिडिल स्कूलों में छात्रों का अनुपात ५२.३ है तो छात्राओं का ३० प्रतिशत है।
मुस्लिम औरतों के पिछडेपन की वजह हमेशा इस्लाम में ढूँढने की कोशिश की जाती रही है।
इस्लाम कहता है , पिता या पति की सम्पति की उत्तराधिकारी वो भी है । वो अपनी से शादी कर सकती है.हाँ, माँ-बाप की सहमती को शुभ माना गया है। उसे तलाक़ लेने का भी अधिकार है.विधवा महिला भी विवाह कर सकती है.अगर मुस्लिम महिला नौकरी या व्यवसाय करती है तो उसकी आय या जायदाद में उसके पिता, पति, पुत्र या भाई का कोई वैधानिक अधिकार हासिल नहीं रहता। साथ ही उसके भरण-पोषण का ज़िम्मा परिवार के पुरूष सदस्यों पर ही कायम रहता है।
इसके अतिरिक्त भी कई सुविधाएँ और अधिकार इस्लाम ने महिलाओं को दिए हैं जो इस बात के गवाह हैं कि उनके अनपढ़ रहने या पिछडेपन के लिए धर्म के नियम-कानून बाधक नहीं हैं।
इसके बावजूद उनकी हालत संतोषजनक कतई नहीं है.इसका मूल कारण पुरूष सत्तावादी समाज है। महिलाएं चाहे जिस वर्ग, वर्ण, समाज कि हों, सबसे ज्यादा उपेक्षित हैं, दमित हैं, पीड़ित हैं।
इनके उत्थान के लिए
बाबा साहब भीम राव आंबेडकर ने महिलाओं के लिए आरक्षण की वकालत की थी।
महात्मा गाँधी ने देश के उत्थान को नारी के उत्थान के साथ जोड़ा था।
पहली महिला न्यायाधीश बी फातिमा , राजनेता मोहसिना किदवई , नजमा हेपतुल्लाह , समाज-सेविका -अभिनेत्री शबाना आज़मी, सौन्दर्य की महारती शहनाज़ हुसैन, नाट्यकर्मी नादिरा बब्बर, पूर्व महिला हाकी कप्तान रजिया जैदी, टेनिस सितारा सानिया मिर्जा, गायन में मकाम-बेगम अख्तर, परवीन वैगेरह , साहित्य-अदब में नासिर शर्मा, मेहरून निसा परवेज़, इस्मत चुगताई, कुर्रतुल ऍन हैदर तो पत्रकारिता में सादिया देहलवी और सीमा मुस्तफा जैसे कुछ और नाम लिए जा सकते हैं, जो इस बात के साक्ष्य हो ही सकते हैं की यदि इन औरतों को भी उचित अवसर मिले तो वो भी देश-समाज की तरक्की में उचित भागीदारी निभा सकती हैं।
लेकिन सच तो यह है कि फातिमा बी या सानिया या मोहसिना जैसी महिलाओं का प्रतिशत बमुश्किल इक भी नहीं है। अनगिनत शाहबानो, अमीना और कनीज़ अँधेरी सुरंग में रास्ता तलाश कर रही हैं।
मुस्लिम महिलाओं के पिछडेपन की वाहिद वजह उनके बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार का न होना है। हर दौर में अनपढ़ को बेवकूफ बनाया गया है। अनपढ़ रहकर जीना कितना मुहाल है, ये अनपढ़ ही जानते हैं। पढ़े-लिखों के बीच उठने-बैठने में , उनसे सामंजस्य स्थापित करने में बहुत कठिनाई दरपेश रहती है। मुस्लिम औरतों का इस वजह्कर चौतरफा विकास नहीं हो पाता। वो हर क्षेत्र में पिछड़ जाती हैं। प्राय:कम उम्र में उनकी शादी कर दी जाती है। शादी के बाद शरू होता है, घर-ग्रहस्ती का जंजाल। फिर तो पढ़ाई का सवाल ही नहीं। ग़लत नहीं कहा गया है कि पहली शिक्षक माँ होती है। लेकिन इन मुस्लिम औरतों कि बदकिस्मती है कि वोह चाह कर भी अपने बच्चों को क ख ग या अलिफ़ बे से पहचान नहीं करा पातीं।
परदा-प्रथा इनके अनपढ़ रहने के कारकों में अहम् है.ये कहना काफ़ी हद तक सही है.उसे घरेलु शिक्षा-दीक्षा तक सिमित कर दिया गया है.और ये शिक्षा-दीक्षा भी सभी को नसीब नहीं.पढने के लिए महिलाओं को बहार भेजना मुस्लिम अपनी तौहीन समझते हैं.और इसे धर्म-सम्मत भी मानते हैं.हर मामले में धर्म को घसीट लाना कहाँ कि अक्लमंदी है.जबकि इस्लाम के शुरूआती समय में भी औरतें घर-बहार हर क्षेत्र में सक्रीय रही हैं.इस्लाम में महिलाओं पर परदा जायज़ करार दिया तो है लेकिन इसका अर्थ कतई ये नहीं है कि चौबीस घंटे वो बुर्के में धनकी-छुपी रहें॥ बुर्का या नकाब का चलन तो बहुत बाद में आया.इस्लाम कहता है कि ऐसे लिबास न पहनो। जिससे शरीर का कोई भाग नज़र आ जाए या ऐसे चुस्त कपड़े मत पहनो जिससे बदन का आकार-रूप स्पष्ट हो अर्थात अश्लीलता न टपके। इसलिए पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के समय औरतें सर पर छादर ओढ़ लिया करती थीं.कुरान में दर्ज है , पैगम्बर (हज़रत मोहम्मद) अपनी बीबियों, लड़कियों और औरतों से कह दो कि घर से बाहर निकलते वक्त अपने सर पर छादरें डाल लिया करें।
ईरान के चर्चित शासक इमाम खुमैनी ने भी बुर्का-प्रथा का अंत कर औरतों को चादर कि ताकीद कि थी.पैगम्बर के समय मुस्लिम औरतें जंग के मैदान तक सक्रीय थीं.लेकिन कालांतर में पुरूष-वर्चस्व ने उसे किचन तक प्रतिबंधित करने कि कोशिश कि और काफ़ी हद तक कामयाबी भी हासिल कर ली। कई मुस्लिम देश ऐसे हैं जहाँ महिलाएं हर क्षेत्र में सक्रीय हैं.लेकिन विश्व कि सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले धर्म-निरपेक्ष तथा गणतंत्र भारत में उसकी स्थिति पिंजडे में बंद परिंदे कि क्यों?
इसका जिम्मेदार मुल्ला-मौलवी और पुरूष प्रधान समाज ही नहीं स्वयं महिलाएं भी हैं जो साहस और एकजुटता का परिचय नहीं देतीं।
ज़रूरत है इक बी आपा की जिन्होंने अलीगढ में स्कूल कालेज की स्थापना की थी ।

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

अलविदा!! अहमद फ़राज़

हिन्दुस्तानी का शायर अहमद फ़राज़ :

किस-किस को बताएँगे जुदाई के सबब हम



उर्दू ज़बान हिन्दुस्तानी उपमहाद्वीप की साझा-संस्कृति और परम्परा की उपज है.यह ऐसी भाषा है जो आज भी विभाजित दो बड़े भूभागों को एक सूत्र में पिरोने का काम करती है.ग़ज़ल की इसमें महती भूमिका है.दोनों मुल्क की पत्र -पत्रिकाये , ख्वाह हिन्दी या उर्दू की हों , सीमा आर-पार के शायरों से अटी रहती हैं।

अहमद फ़राज़ ऐसा ही शायर था.उसे फैज़ और जोश की परम्परा का माना गया ।

वोह दुन्या का गीत गाता रहा।
१२ दिसम्बर १९३१ को ,नोशेहरा में जन्मा ये शायर अमरीका में जाकर आखरी नींद सो गया.कुछ दिनों क़ब्ल भी इनकी मोत की अफवाह उडी थी, पर फहमीदा रियाज़ ने अखबारों में इक लेख के माध्यम से उसे ग़लत बताया था.कहा जाता है, ऐसी ख़बरों से उस आदमी की उम्र लम्बी होती है.लेकिन नियती!
पाकिस्तान का शहरी ये शायर भारत को अपना दूसरा घर कहता था.इसकी उपश्तिथि न हो तो बड़ा सा बड़ा मुशायरा नाकाम माना जाता था.खाकसार को bhi उनसे दो बार मिलने का saobhagy मिला है.राजपाल से प्रकाशित उनकी किताब ये मेरी नज्में,ये मेरी ग़ज़लें का हिन्दी लिप्यान्तरण मैंने ही किया था.और पाकिस्तानी शायरी का संपादन करते समय उनकी दस ग़ज़ल शामिल की थी.आप शायरी में अपने दिमाग का भी तुंरत इस्तेमाल करते थे.समकाल की बेचैनी का रेखांकन भी उनकी गज़लों में खूब होता है.कहा जाता है aहमद नदीम कासमी कि भावुकता का उन पर ज्यादा असर है, लेकिन फैज़ अहमद फैज़ जैसा प्रगतिशील शायर भी उन्हें खूब भाता था.शायरी के नित्य नए पडाओं और मोडों से आप वाकिफ रहे।
फ़ारसी में मास्टर डिग्री कि सनद से याफ्ता फ़राज़ साहब ने रेडियो के रिपोर्टर से आरम्भ कर अपनी नोकरी के लिए कई दफ्तरों के चक्कर ज्यादा nahin लगाये.प्रोग्राम प्रोड्यूसर हुए.पाकिस्तानी नेशनल सेंटर के निदेशक का पद आखरी रहा.कई वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे थे.उनकी करीब दर्जन-भर से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें दर्द-आशोब, तनहा-तनहा, शब्-खून, नायाफ्त,जानाँ-जानां प्रमुख हैं.हिन्दी में भी उनकी अधिकाँश चीज़ें उपलब्ध हैं.आपने नज्मों और गज़लों के अलावा नाटक भी लिखे।

रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ

शायद ही कोई मिले जो इस ग़ज़ल से अनजान हो.फ़राज़ कहा करते थे कि इसे मेहदी हसन ने इतना गाया है और इतना मशहूर कर दिया है कि अब ये उनकी ही ग़ज़ल मालूम देती है.फिजा में बार-बार उनका ही शे'र गूंजताहै:
क्या रुखसते-यार की घड़ी थी
हंसती हुई रात रो पड़ी थी

अब आप उनकी इक ग़ज़ल से रूबरू हों, बिल्कुल शान्ति के साथ।


ग़ज़ल
____अहमद फ़राज़

शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदायें मुझे न दो


जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
अब तुम तो ज़िन्दगी की दुयाएँ मुझे न दो


यह भी बड़ा करम है सलामत है जिस्म अभी
खुश्खाने-शहर क़बायें मुझे न दो


ऐसा न हो कभी की पलटकर न आ सकूं
हर बार दूर जाके सदायें मुझे न दो


कब मुझको अत्राफे-मुहब्बत न था फ़राज़
कब मैंने यह कहा है सजाएं मुझे न दो


_______________नगर के धनिकों,चोगा,


अग्रज साथी-रचनाकार aflaatoon ने भी फ़राज़ साहब को याद किया
हार जाने का हौसला है मुझे अहमद फ़राज़

स्तम्भ: व्यक्तित्व 
 

सोमवार, 18 अगस्त 2008

शर्म उनको मगर नहीं आती !

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पिछले दिनों उर्दू लेखकों की धर्मान्धता पर मैंने सवाल उठाया था.अच्छा लगा कई लोग मेरे साथ खड़े हुए.मेरा मानना है कि साम्प्रदायिकता अल्पसंख्यक समाज की हो या बहुसंख्यक समाज की दोनों खतरनाक होती है.सतीश सक्सेना जी ने प्रतिक्रिया दी।आप ख़ुद भी विद्वान् हैं और अपने ब्लॉग पर समय के अहम् सवालों से जूझते रहते हैं.उनकी कविता भी जनता-जनार्दन की हँसी और खुशी की बात करती है.उनके ब्लॉग का पता है :
http://satish-saxena।blogspot.com/ और http://lightmood.blogspot.com/
अभी उनका मेल मिला है इसी मुद्दे पर चूँकि वो पोस्ट इसी जगह पोस्ट हुई थी सो उनकी प्रतिक्रिया भी मैं यहाँ देना उचित समझता हूँ.जोकि बहसतलब है।
_शहरोज़
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शर्म उनको मगर नहीं आती !

सतीश सक्सेना

आपने कट्टर धार्मिक असहिष्णुता, जो हमें आपस में लड़ा दे, उसका विरोध करने की हिम्मत की है ! मुझे चिंता यह है कि कुछ लोग आप जैसे सच्चे मुसलमान को भी काफिर या काफिरों का दोस्त न समझ लें ! आपके ही कहे हुए कुछ शब्द मुझे याद आ रहे हैं !
तंग-जाहिद नज़र ने मुझे काफिर समझा
aur काफिर ये समझता है मुसलमाँ हूँ मैं

ये हम जैसे तमाम लोगों की पीडा है.....

यह अफ़सोस जनक है कि आप जैसे लोगों की इस पीड़ा को कोई नही समझना चाहता , बड़े बड़े विद्वान् यहाँ ब्लाग जगत में ही कार्य कर रहे हैं, मगर कोई यहाँ आकर साथ नही खडा होता ! मैं अपने धर्म को बहुत प्यार करता हूँ मगर मैं अपने मुस्लिम भाइयों व मुस्लिम धर्म को भी उतना ही आदर कर, उन्हें यह अहसास दिलाना चाहता हूँ कि अधिकतर देशवासी उन्हें व उनके धर्म का उतना ही आदर करते हैं जितना अपने का ! और मुझे पूरा विश्वास है कि अधिकतर मुस्लिम भी यही सोचते हैं ! फिर भी प्रतिक्रियावादी इन मीठे दरियाओं को सुखाने का, कोई हथकंडा खाली नही जाने देते ! मुझे नही लगता कि आप जैसे लोगों से अधिक कोई और धार्मिक सद्भाव रखता होगा ! मेरा व्यक्तिगत विचार है कि धर्म के दुरुपयोग करने बालों को बेनकाब करना ही चाहिए ! मगर इस नाज़ुक विषय पर सिर्फ़ उन्ही को आगे आना चाहिए जिसको इसकी समझ हो ! हमें अपने अपने धर्म को सम्मान देना है, और देना चाहिए ! धर्म सबसे ऊपर है, और अपने परिवार में संस्कार और सभ्यता धर्म की ही देन हैं ! मगर धर्म के तथाकथित अपमान के नाम पर उसका दुरुपयोग नहीं होने देना चाहिए ! दुःख तब होता है जब एक बेहद अच्छे और निश्छल व्यक्ति के ऊपर देश तोड़ने, विद्वेष फैलाने, और उसके अपने ही धर्म के अपमान का आरोप उसके ऊपर मढ़ दिया जाता है ! आप चलते रहें , मेरे जैसे बहुत से लोग आपको देख रहे हैं और आपका साथ भी देंगे ! यगाना के बारे में कुछ और तफसील दें, उन्हें पढ़ कर अच्छा लगेगा !

धर्म की परिभाषा लोग अपनी अपनी श्रद्धा और समझ के हिसाब से लगाते हैं , मगर यह नितांत व्यक्तिगत होना चाहिए ! धर्म को साइंस और वाद विवाद की कसौटी पर नहीं आजमाया जा सकता मगर लोग अक्सर इस विषय पर दो दो हाथ करने को हर समय तैयार रहते हैं ! हर मज़हब में सबसे अधिक किसी बात पर जोर दिया गया है, तो वह है आपस में मुहब्बत से रहना, और हम धर्म के जानकार सिर्फ़ इसे ही याद नही रख पाते ! कहते हैं गुरु के बिना सद्गति नहीं मिलती तो कहाँ मिलेंगे हमें गुरु ? आज देश को जरूरत है एक कबीर की जो हम सब को सही राह दिखलायें ! उनके शब्द .....

रहना नहीं देस बिगाना है
यह संसार कागज की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है
यह संसार काँटों की बाड़ी, उलझ उलझ मर जाना है
यह संसार झाड़ अरु झंखार, आग लगे गल जाना है
कहत कबीर सुनो भाई साधो ! सतगुरु नाम ठिकाना है

और मेरा यह विश्वास है कि हम सब में वह चेतना अवश्य जागेगी, एक दिन आएगा जब :
रामू को हर गोल टोपी और दाढ़ी बाले चचा की आंखों में मुहब्बत नज़र आने लगेगी
और मन्दिर के आगे से गुजरता हुआ रहीम, पुजारी को आदाब करके ही आगे जाएगा !

मगर मौलाविओं और पुजारिओं को समझाने के लिए कबीर कब आयेंगे ?

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

दिल पर रख कर हाथ कहिये, देश क्या आजाद है

सवाल दर सवाल है , हमें जवाब चाहिए



और ये सवाल उनका है, जो दमित हैं, दलित हैं, शोषित हैं ।

बड़े अनमने ढंग से लिख रहा हूँ। उत्सव की गहमा-गहमी और मैं कहाँ दुखियारों और पीडितों , गरीबों की बात लेकर बैठ गया।

मुझे सिवा अश्वनी की एतिहासिक जीत के कुछ और नज़र नहीं आता कि मैं खुश हो सकूं।

भले कुछ लोग बाईसवीं सदी में हों लेकिन अपन तो अभी तक अठारहवीं में जी रहे हैं और कई तो सोलहवीं या तेरहवीं में ही हों।


लेकिन भाई खबरें तो इक्कीसवीं या बाईसवीं की ही पढाई-देखाई जाती है।
हाँ हम जैसे कलम के सुरमा भोपाली सर ज़रूर फोड़ सकते हैं।

अभी हाल में ही एक आयोजन में शिरकत करते हुए ख्यात देसी - चिन्तक-पत्रकार प्रभाष जोशी ने कहा :

अब तो मध्य-वर्ग के साथ समाचार माध्यमों ने भी देश में बढती असमानता की और देखना बंद कर दिया है।
जबकि स्थिति यह है कि देश में २००४ में ९ खरबपति थे जो २००८ में बढ़कर ५६ हो गए। यानी फ़क़त चार बरस में ही खरबपतियों की संख्या छः गुना बढ़ गई.(खरबपतियों आज़ादी तुम्हें मुबारक ! ) और दूसरी ओर अर्जुन सेन गुप्ता कि रपट के मुताबिक ८४ करोड़ यानी ७७ फीसदी लोग रोजाना बीस रूपये भी नहीं पाते। उनमें से ३२ करोड़ लोग तो सिर्फ़ एक समय का भोजन जुटा पाते हैं। २२ करोड़ ऐसे हैं जिन्हें पता नहीं कि उनका अगला भोजन कब कहाँ से आएगा या आयेगा भी या नहीं।

हर वर्ष यह पन्द्रह अगस्त आता है, और चला जाता है .रमुआ आज भी रिक्शा चलाता है.उसका बाप भी यही करता था.किसन अब तक मुंबई से नहीं लौओटा है.समीर दत्त अपनी माँ से मिलने जम्मू नहीं जा पा रहा है. जुबैदा अब भी मेम साहब के यहाँ बरतां मांजा करती है.इलाहाबाद की सड़क पर आज भी औरत पत्थर तोड़ती है.गरीबी हटाओ के नाम पर देश पर खरबों का क़र्ज़ हो गया है.पर यह पैसा गरीबों तक नहीं पहुँचा.आँख फाड़कर देखिये तो यह पैसा आपको सड़कों पर भागती चम्-चमाती गाड़ियों,ब्यूटी पार्लरों से ले पाँच सितारा होटलों की लम्बी कतारों, ऊँची-ऊँची मीनारों, खद्दर धारीओं के कुरते झांकती तोंदों और फार्म हौसों में दिख जाएगा।

तेजपाल सिंह तेज ने सही कहा है :

भुखमरी के वोट ने बदले हैं तख्तो-टाज
पर भुखमरी के मील के पत्थर नहीं बदले



बहुत ही सुनियोजित ढंग से अब खेती-किसानी पर भी कब्जे किए जा रहे हैं.खेती को उद्योग का दर्जा देने की बात के साथ-साथ विदेशियों को भी नेवते दिए जा रहे हैं.अब खेती किसानों के लिए नहीं.किसी किसान को कुछ जुगाड़ में मिल जाए गनीमत जानिए.आंध्र से लेकार बस्तर और महारष्ट्र के इलाकों में किसान आत्महत्या कर रहे हैं.अभी नोइडा में किसान पुलिस की गोलिओं का ग्रास बने।

बात महज़ गाँव की नहीं.शहर में पढ़े-लिखे युवाओं की तादाद बढ़ रही है। जो बेरोजगार है.चमक-दमक से प्रभावित होकर इनमें से कई अनैतिक और भ्रष्ट कामों की ओर प्रेरित कर दिए जाते हैं.अपराध के आंकडें बढ़ रहे हैं.श्याम ८ बरस का है.होटल में बर्तन माजता है.करोड़ों बच्चे पढने और खेलने कूदने की उम्र में कबाड़ में अपना भविष्य तलाश कर रहे हैं.महानगर की ओर भागती लम्बी फोज है.दिल्ली, मुंबई और कोल्कता जाने वाली रेल गाँव और कस्बों के जवानों से पटी रहती है.सुंदर कल की खोज में निकले ये लोग घर लोटना चेन तो भी नहीं जा पाते.एकाक भाग्यशाली हो सकते हैं।



आप ही बताएं क्या इन्हें मुबारकबाद कहूं!



अदम गोंडवी याद आ रहे हैं:

सो में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पर रख कर हाथ कहिये देश क्या आजाद है
कोठियों से मुल्क की मियार को मत आंकिये
असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ प आबाद है



रविवार, 3 अगस्त 2008

उर्दू लेखकों की धर्मान्धता

यास यगाना पर इस्लाम-विरोध का इल्ज़ाम
शर्म उनको मगर नहीं आती

तहजीब और गंगा-जमनी गहवारे का गवाह शहर लखनऊ से बहुत बुरी ख़बर मिली है.अपने समय के मशहूर उर्दू शायर यास यगाना पर आयोजित होने वाले परिसंवाद को कथित कट्टरवादी उर्दू के लेखकों के दबाव के कारण स्थगित कर दिया गया . ये हादिसा जून का है . साहित्य अकादमी ये आयोजित कर रही थी.विरोधियों ने ये कहकर आयोजन न होने दिया कि यगाना इसलाम-विरोधी थे.और लखनऊ में किसी तरह का प्रोग्राम नहीं होने दिया जायेगा.
इलाही माजरा क्या है?
ये अदब के भी लोग हैं या नहीं जिन्होंने यगाना जैसे शायर की मुखालिफत की।

इस घटना ने वही पुरानी बहस को जिंदा कर दिया कि क्या ज़बान किसी धर्म-मज़हब की बपोती होती है.
तो क्या प्रेमचंद,सरशार,फिराक पर ये लखनऊ वाले naam-nihadi उर्दू premi -मुस्लिम कभी अपने यहाँ कोई आयोजन नहीं होने देंगे.
क्या अहमक़ानापन है.
फिर बात ये समझ में नहीं आती कि साहित्य अकादमी उनसे डर क्यों गयी.
अगर अदब यानी साहित्य धर्म या मज़हब के मातहत होता तो क्या मीरजैसा शायर ये कहने की जुर्रत करता:

मीर के दीन-ओ-मज़हब को पूछते क्या हो ,उन से
क़शका खींचा, दैर में बैठा कब का तर्क इसलाम किया
तो ग़ालिब कहते हैं:
हमको मालूम है जन्नत की हकीक़त लेकिन
दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है

शओक़ लखनवी ने बहुत तीखे तेवर में शायरी की है।और भी कई शायर-लेखक हुए.क्या ग़ालिब और मीर या यगाना के समय के मुसलमान से आज के ये लखनवी मुस्लिम जिन्होंने विरोध किया ज्यादा ईमान के पक्के हैं? क्या ईमान महज़ किसी के विरोध और समर्थन पर टिका होता है?क्या पाकिस्तान की सरकार गैर-इस्लामी हो गयी ?
मुश्फिक ख्वाजा के संपादन में वहां कुल्लियात-यगाना प्रकाशित हो चुका है।

यूँ ये ख़बर भी और ज़रूरी ख़बर की तरह गुम हो गई थी.अभी उर्दू के लेखक नामी अंसारी का इक ख़त उर्दू के इक अख़बार में छपा तो खाकसार को जानकारी मिली।उनके हम आभारी हैं.इस घटना की जितनी निंदा की जाए कम है.इक शे'र को थोडा सा रद्द-ओ-बदल कर कहने का मन करता है:

अदब का खून होता है
तो मेरी रूह रोती है
अदब के साथ बेअदबी
बहुत तकलीफ़ होती है

(साहित्, आत्मा, सम्मानहीनता,असम्मान)

रविवार, 27 जुलाई 2008

इस्लाम की व्याख्या !



आतंक के ग्रास बने तमाम मासूमों के नाम

वक़्त फ़ज्र का
मुअज़्ज़िन की सदा
अस्सलातो-खैरुन-मिनन-नोम

और तुम्हारा इस्लामिक बम
आ गिरता है

नमाज़ी-समेत
मस्जिद
हो जाती है
शहीद।

ऐ ! पाक हुक्मराँ
व्याख्या करो
अपने
इस्लाम की।

(प्रात:काल की नमाज़,अज़ान पुकारनेवाला, नमाज़ नींद से बेहतर है, पवित्र और पाकिस्तान )

बुधवार, 23 जुलाई 2008

आदमी,आदमी सा






























सूरज, सूरज सा
चाँद, चाँद

कुत्ता, कुत्ता सा
गिरगिट, गिरगिट


फूल, फूल सा
शूल, शूल


मित्र ! कब दिखेगा
आदमी, आदमी सा

बुधवार, 2 जुलाई 2008

खड्गसिंह

बस्स धुन में चढ़ते जाना
पहाड़ों और पेड़ों पर
इससे बिल्कुल अंजान कि
वहाँ काँटे और ज़हरीले जीव भी हैं
बचपन की आदतें कहीं छूटती भी हैं ।


हम सब कुछ भला-भला सा समझने के
आदीजो ठैरे
जानती तो थी कि वह कई अस्तबलों में जाता है
अब उबकाई आती है कहते कि
वह बिल्कुल पिता की तरह था
हर संकट में साथ देने को तत्पर
उसकी डांट भी कभी बुरी नहीं लगी






सुलतान पर उसकी दृष्टि तो थी
पर मैंने हमेशा इसे वात्सल्य समझा


उस शाम
ज़रूरी निर्देश समझाते-समझाते
उसके हाथ पीठ पर रेंगे
तो उसकी कुटिल मुस्कान की हिंसा
मेरी आंखों से काफ़ी दूर थी कि
अचानक
उसकी पकड़ मज़बूत हो गई



सुलतान को मुझसे ज़बरदस्ती झपटने के
प्रतिकार में मैं बुक्का मार दहाड़ी




वह आज का खड्गसिंह है माँ
देर तक मुझे समझाता रहा और
नए-नए प्रलोभनों की साजिशें बुनता रहा




माँ , मुझे लोग सहनशील कहते हैं
उन्हें पता है इसमें छुपी यातनाओं का



मदद को बढ़ा अब हर हाथ सर्प-सा लहराता है
अपनत्व से निहारती निगाहें चिंगारियां उगलती हैं




हे प्रभु! मुझे क्षमा करना
मैं ने सभी संपर्क ख़त्म कर लिए हैं
पर माँ , हर कोई खड्गसिंह तो नहीं होता !

मुझे गर्भ में छुपा लो माँ
बहुत-बहुत डर लगता है




(रेखांकन चार साला साहबजादे आयेश लबीब का
जो अक्सर वह कंप्यूटर पर बैठ कर किया करते हैं )

मंगलवार, 24 जून 2008

उर्दू के श्रेष्ठ व्यंग्य : लिंक


बी.बी.सी. : चार कवितायें

http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2007/05/070503_kavita_shahroz.shtml

क्यों रहूँ इस शहर में
अब क्यों रहूँ इस शहर में
नहीं रहे यहाँ अब खेत
न ही साहस है किसी बीज में
उर्वरता के अर्थ बदल चुके हैं
प्रतिभा का चतुराई ने कर लिया है अपहरण.
नहीं आता है कोई कौव्वा छत की मुंडेर पर
चमगादड़ उड़ना भूल, सरकता है रिश्तों की दीवारों पर.
नहीं झरता है वाणी से निर्मल जल
न ही उगलती है आँख अंगारे.
इस जंगल का शेर भी वैसा नहीं दहाड़ता
बहुत स्नेहपूर्वक करता है शिकार
उसकी गर्दन में लटकती ज़बान लपलपा रही होती है.

चित्रांकन-हेम ज्योतिका
चित्रांकन-हेम ज्योतिका
हँसता नहीं कोई खुलकर
रोता भी नहीं बुक्काफाड़कर
दीवारों से नहीं चिपटता दुख का अवसाद
हर्ष का आह्लाद भी नहीं फोड़ता छत
पड़ोसी की गोद में नहीं सुबकता बालक
उसकी मुस्कान माँ की घूरती निगाहों में हो जाती है क़ैद
धड़ाम्! बंद करती दरवाज़ा, बतियाती है घंटों फ़ोन पर
किसी अनदेखे व्यक्ति से, अपनी जाँघों की तिल से पड़ोसिन के नितंबों तक.
बच्चे बड़ों की तरह हो रहे हैं बड़े
लड़कियाँ स्कूल छोड़ते-छोड़ते बन चुकी होती हैं औरतें.
बसंत में भी चिड़िया ने नहीं गाया फाग.
पोशाक से सिर्फ़ दुर्गंध नहीं आती
त्वचा को चुभते हैं उनके कँटीले रेशे
काँधा नहीं मिलता बरसने को आतुर उमड़ते-घुमड़ते बादल को.
सिक्के की चमक गिलास भर पानी में धुल चुकी है
भरी जेब काग़ज़ों का पुलिंदा है.
तुम कहते हो दूरियाँ कम हो गई हैं
हमारा फ़ासला तो और बढ़ता जा रहा है
तुम तक पहुँचने की आशंका
बीच की खाई के जबड़े में दम तोड़ती है
जबड़े के अंदर तुम्हार अट्टाहास गूंजता है.
****
कविता पर रोक
कविता लिखना चाहता हूँ
शर्त रख दी जाती हैः
मुसलमान हो तो;
कुरआन-हदीस पर मत लिखना.
ईसाई हो तो; ईसा के पिता का सवाल
नहीं उठाओगे.
हिंदू हो तो; अयोध्या छोड़कर सारी
‘रामायण’ लिख सकते हो.
मैं बोलना चाहता हूँ
तो प्रतिबंधित कर दिया जाता हूँ.
****
दिल्ली आकर

चित्रांकन-हेम ज्योतिका
चित्रांकन-हेम ज्योतिका
गाँव में थे
क़स्बे से आए व्यक्ति को
घूर-घूर कर देखते.
क़स्बे में थे
शहर से आए उस रिक्शे के पीछे-पीछे भागते
जिस पर सिनेमा का पोस्टर चिपका होता.
शहर में आए
महानगर का सपना देखते.
दिल्ली आकर
गाँव जाने का ख़ूब जी करता है.
****
सपने थे
सपने थे
नेक नियत के.
सपने थे
नेक चलनी के.
सपने थे
नेक इरादों के.
सपने थे
हर्ष-उल्लास के.
सपने थे और सिर्फ़ सपने थे.

आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं  

मंगलवार, 17 जून 2008

अन्तिम भाग

दिन भर की मजदूरी के बाद घर लौटा पिता
बच्चे को छाती से चिपटायेगा
उसके गर्म स्पर्श से संगृहीत करेगा ऊष्मा ,उर्जा
पिता की तरह टांगो पर टांग चढाये
बच्चा अख़बार देखेगा
पिता पुलकित होगा मंद -मंद..............

पूरी कविता पढने के लिए रविवार देखिये 

शेष .....


खिड़की से झांकता हुआ पार्क या बस स्टाप पर गुटुरगूं करते युगल को
देख कबाब बन धुंआ उगलता जाएगा
उसका विश्वास लबरेज़ होगा की सारी स्त्रियों को
सिर्फ़ वही तृप्त कर सकता है ।


शेष रविवार में ...

सोमवार, 16 जून 2008

मेरे न रहने पर

मेरे न रहने पर
खिड़की पर चाँद अटक जायेगा
कमरे में रौशनी छिटका करेगी
कुछ न कुछ चमक रहा होगा
मेज़ पर बिखरे पन्ने
फर्श पर खिलोने ।


पूरी कविता पढने के लिए क्लिक करें :

रविवार, 15 जून 2008

ग़ज़ल

लहू गो अश्क बन कर बह गया है
मेरे दामन पे धब्बा रह गया है

कहाँ जाऊं मैं तेरे दर से उठ कर
यही ले दे के इक दर रह गया है

मेरी मजबूरियाँ मत देख जालिम
सितम ढाले जो बाक़ी रह गया है

नज़र आते हैं तेवर बदले -बदले
कोई कुछ चुपके -चुपके कह गया है

पड़ीं क्या -क्या नहीं इस पर बलाएँ
भला हो दिल का सब कुछ सह गया है

उन्हें हो उनकी खुशनुदी मुबारक
मेरी किस्मत में गिरया रह गया है

क़मर कुछ शे 'र और पढिये
ज़माना अब भी तिशना रह गया है

गुरुवार, 12 जून 2008

सिनदीर के चित्र आभार सहित


सोमवार, 9 जून 2008

बाबा की पाती



(आयेश और आमश के लिए )

हमारे पास कुछ भी नहीं है
चंद औराक गर्दिशे -दोराँ के
चंद नसीहतें जो नस्ल दर नस्ल हम तक पहुंचीं
ऐसा विश्वास जहाँ श्रद्धा के अतिरिक्त
सारे सवाल अनुत्तरित और प्रतिबंधित
हैं

मैं कांपता था , लड़खडाने लगते थे क़दम
पसीने लगते थे छूटने
तुम मत डरना
कभी कुत्ते के भोंकने और बिल्ली के म्याओं म्याओं से

शिनाख्त रखना नहीं
न वजूद के पीछे
भागना
रैपर बन जाना
किसी भी साबुन की टिकया
का चमकदार और भड़क दार ,
टिकया के बारे में न सवाल करना न करने देना ;
वे एक सी होती हैं
सभी
हाँ !रैपर का नाम ही तुम्हारा होगा
यह मान बढायेगा तुम्हारा

अनुभव की पोटली से निकले ये चंद
सिक्के बेईमानी ,झूठ और मक्कारी
कल तुम्हारे मुद्रा -अस्त्र होंगे

सहेजकर रखना इस वसीयत
को

मुझे याद मत
करना

किरदार और गुफ्तार रफ़्तार की
रखना रेत के टीले मत बनाना ।

आमश


आयेश


रविवार, 1 जून 2008

ग़ज़ल -1

इश्क़ गर बेहिसाब हो जाए
ज़िंदगी कामयाब हो जाए

वो अगर बेनकाब हो जाए
ज़र्रा भी आफताब हो जाए

तुमने देखा कहीं हुस्न -अज़्ल
देख लो इंकलाब हो जाए



मुस्कुरा दें गर वो गुलशन में
कांटा-कांटा गुलाब हो जाए



उनसे गर इंतेसाब हो जाए
रग-रेशा  शादाब हो जाए




ज़िन्दगी गर अताब हो जाए
क़तरा-क़तरा तेज़ाब हो जाए

ग़ज़ल

न शओकत, न शोहरत , न ज़र चाहिए
फ़क़त इक तेरी नज़र चाहिए

वफाएं, जफाएं हैं अपनी जगह
दुआओं में कुछ असर चाहिए

समझकर बताओ ,ज़रा शेख जी
ख़ुदा चाहिए उसका घर चाहिए

तगाफुल बहुत हो लिया ऐ क़मर
कहो जिसको घर ,वैसा घर चाहिए

शर से महफूज़ हो ले हर इक पर
यूं मज़बूत दीवारों-दर चाहिए

शुक्रवार, 30 मई 2008

ग़ज़ल के चंद शे'र

जाने तकदीर कैसी पाई है
हमने हर बार मात खाई है

उसने देखा न एक बार हमें
हम समझते थे शनासाई है

ज़िक्र दैरो हरम बहाना है
ज़िंदगी किसको रास आई है

सिर्फ़ अहले नज़र का धोका है
क्या अच्छाई है क्या बुराई है
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