क्यों रहूँ इस शहर में
अब क्यों रहूँ इस शहर में
नहीं रहे यहाँ अब खेत
न ही साहस है किसी बीज में
उर्वरता के अर्थ बदल चुके हैं
प्रतिभा का चतुराई ने कर लिया है अपहरण.
नहीं रहे यहाँ अब खेत
न ही साहस है किसी बीज में
उर्वरता के अर्थ बदल चुके हैं
प्रतिभा का चतुराई ने कर लिया है अपहरण.
नहीं आता है कोई कौव्वा छत की मुंडेर पर
चमगादड़ उड़ना भूल, सरकता है रिश्तों की दीवारों पर.
चमगादड़ उड़ना भूल, सरकता है रिश्तों की दीवारों पर.
नहीं झरता है वाणी से निर्मल जल
न ही उगलती है आँख अंगारे.
न ही उगलती है आँख अंगारे.
इस जंगल का शेर भी वैसा नहीं दहाड़ता
बहुत स्नेहपूर्वक करता है शिकार
उसकी गर्दन में लटकती ज़बान लपलपा रही होती है.
बहुत स्नेहपूर्वक करता है शिकार
उसकी गर्दन में लटकती ज़बान लपलपा रही होती है.
चित्रांकन-हेम ज्योतिका |
हँसता नहीं कोई खुलकर
रोता भी नहीं बुक्काफाड़कर
दीवारों से नहीं चिपटता दुख का अवसाद
हर्ष का आह्लाद भी नहीं फोड़ता छत
पड़ोसी की गोद में नहीं सुबकता बालक
उसकी मुस्कान माँ की घूरती निगाहों में हो जाती है क़ैद
धड़ाम्! बंद करती दरवाज़ा, बतियाती है घंटों फ़ोन पर
किसी अनदेखे व्यक्ति से, अपनी जाँघों की तिल से पड़ोसिन के नितंबों तक.
रोता भी नहीं बुक्काफाड़कर
दीवारों से नहीं चिपटता दुख का अवसाद
हर्ष का आह्लाद भी नहीं फोड़ता छत
पड़ोसी की गोद में नहीं सुबकता बालक
उसकी मुस्कान माँ की घूरती निगाहों में हो जाती है क़ैद
धड़ाम्! बंद करती दरवाज़ा, बतियाती है घंटों फ़ोन पर
किसी अनदेखे व्यक्ति से, अपनी जाँघों की तिल से पड़ोसिन के नितंबों तक.
बच्चे बड़ों की तरह हो रहे हैं बड़े
लड़कियाँ स्कूल छोड़ते-छोड़ते बन चुकी होती हैं औरतें.
बसंत में भी चिड़िया ने नहीं गाया फाग.
लड़कियाँ स्कूल छोड़ते-छोड़ते बन चुकी होती हैं औरतें.
बसंत में भी चिड़िया ने नहीं गाया फाग.
पोशाक से सिर्फ़ दुर्गंध नहीं आती
त्वचा को चुभते हैं उनके कँटीले रेशे
काँधा नहीं मिलता बरसने को आतुर उमड़ते-घुमड़ते बादल को.
त्वचा को चुभते हैं उनके कँटीले रेशे
काँधा नहीं मिलता बरसने को आतुर उमड़ते-घुमड़ते बादल को.
सिक्के की चमक गिलास भर पानी में धुल चुकी है
भरी जेब काग़ज़ों का पुलिंदा है.
भरी जेब काग़ज़ों का पुलिंदा है.
तुम कहते हो दूरियाँ कम हो गई हैं
हमारा फ़ासला तो और बढ़ता जा रहा है
तुम तक पहुँचने की आशंका
बीच की खाई के जबड़े में दम तोड़ती है
जबड़े के अंदर तुम्हार अट्टाहास गूंजता है.
हमारा फ़ासला तो और बढ़ता जा रहा है
तुम तक पहुँचने की आशंका
बीच की खाई के जबड़े में दम तोड़ती है
जबड़े के अंदर तुम्हार अट्टाहास गूंजता है.
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कविता पर रोक
कविता लिखना चाहता हूँ
शर्त रख दी जाती हैः
शर्त रख दी जाती हैः
मुसलमान हो तो;
कुरआन-हदीस पर मत लिखना.
कुरआन-हदीस पर मत लिखना.
ईसाई हो तो; ईसा के पिता का सवाल
नहीं उठाओगे.
नहीं उठाओगे.
हिंदू हो तो; अयोध्या छोड़कर सारी
‘रामायण’ लिख सकते हो.
‘रामायण’ लिख सकते हो.
मैं बोलना चाहता हूँ
तो प्रतिबंधित कर दिया जाता हूँ.
तो प्रतिबंधित कर दिया जाता हूँ.
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दिल्ली आकर
चित्रांकन-हेम ज्योतिका |
गाँव में थे
क़स्बे से आए व्यक्ति को
घूर-घूर कर देखते.
क़स्बे से आए व्यक्ति को
घूर-घूर कर देखते.
क़स्बे में थे
शहर से आए उस रिक्शे के पीछे-पीछे भागते
जिस पर सिनेमा का पोस्टर चिपका होता.
शहर से आए उस रिक्शे के पीछे-पीछे भागते
जिस पर सिनेमा का पोस्टर चिपका होता.
शहर में आए
महानगर का सपना देखते.
महानगर का सपना देखते.
दिल्ली आकर
गाँव जाने का ख़ूब जी करता है.
गाँव जाने का ख़ूब जी करता है.
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सपने थे
सपने थे
नेक नियत के.
नेक नियत के.
सपने थे
नेक चलनी के.
नेक चलनी के.
सपने थे
नेक इरादों के.
नेक इरादों के.
सपने थे
हर्ष-उल्लास के.
हर्ष-उल्लास के.
सपने थे और सिर्फ़ सपने थे.
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