
आज मुंबई हादसे की बरसी है. विशेष लोक अदालत में २६५ गवाहों की सुनवाई हो चुकी है. सिर्फ़ दस गवाह रह गये हैं और पूरी आशा है कि मामले की सुनवाई जल्द ही मुकम्मल कर ली जाएगी. लेकिन आम जनता के बीच असली सच कब आएगा या आकर भी अपना चेहरा तकता रह जाएगा, खुदा ही जाने! क्योनिकि सब-कुछ तो सरे आम घटा ठीक ६ /१२ की तरह जब एक पुरानी मस्जिद को ज़मींदोज़ कर दिया गया था. क़रीब दो दशक होने को आए और खर्च हुआ आठकरोड़. लेकिन हासिल पाया शून्य! यानी खोदा पहाड़ निकली चुहिया!
बहुत पहले एक कविता ज़हन में आई थी और उसको लेकर हिन्दी अकादमी ने मेरी पुस्तक से अपनी प्रकाशन सहयोग योजना वापस ले ली थी अघोषित ढंग से. ...
सब कुछ हमारे सामने घटा था
लेकिन हम कायर थे
और अंधे बहरे हो चले थे.
हमने छेह साऔ साल पुरानी इमारत को

ढाँचा कहना शुरू कर दिया था
और ढाँचा को इमारत कहने की तैयारी कर रहे थे.
जब मैं दिल्ली में ही था. दोपहर को उमा भारती की खिलखिलती यह तस्वीर सांध्य-टाइम्स में छपी थी.यानि अब महाराज! काम हो गया हमने आख़िर विदेशी चिन्ह को मतियामेट कर ही दिया , ऐसा वो मुरली मनोहर जोशी से कह रही थी. जिनके काँधे पर वो सवार दिखीं.
हम क्या बताएँ! कोई ढाकी-छुपि बात है नहीं. हम तो ये कहना चाहते हैं की आयोग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव को बरी कैसे कर दिया यानी दोष-मुक्त!!! मस्जिद शहीद की जारही है.ये न सिर्फ़ उन्हें बल्कि सारी दून्या को सुबह पता चल गया थं मस्जिद की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ राज्य सरकार की ही नहीं केंद्र की भी थी.लेकिन केंद्र खामोश रहा . जब तक कि .दूसरे दिन दुपहर पूरी इमारत को ज़मीन दोz कर अस्थाई ढाँचा खड़ा नहीं कर दिया गया.
उस दिन केंद्रीय सुरक्षा बाल को घटना-स्थल से पहले ही रोक दिया गया. और जो पुलिस बल वहाँ था. वो न सिर्फ़ तमाशायी था बल्कि कहीं न कहीं घटने में शामिल भी .दूसरे दिन सुबह आठ बजे के आस-पास राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा.लेकिन कारसेवकों को शाम तक खुली आज़ादी दी गयी. ताकि मंदिर का स्थाई निर्माण हो सकेऽउर उस एटिहासिक क़स्बे में आतंकवादियों को नंगा नाच !करने की छूट!! जब यही शब्दावली थी! मुसलमानों के ३०० घर खाक हुये.कइयों की जान गयी! उनपर कोई मुक़दमा नहीं! तब की सरकार को सारी ख़ुफ़िया जानकारी थी. बावजूद? और दूसरे दिन भी आँख मूंदना?
संघ क्या है और क्या चाहते हैं उनके लोग ये हर कोई जानता है!
लिब्रानी रपट से संघी हैं गो परेशान
अपने किए पर हरगिज़ लेकिन नहीं पेशमान!
वो परेशान भी हरगिज़ नहीं! और पेशमान तो लज्जा वाले होते हैं.
लेकिन कथित सेकुलर लोगों की करामात!! तेरी सादगी पर कौन मर जाए न खुदा!
खुशी की बात ये है कि अब जनता सियासत की चालों को जान-समझ चुकी है.जिसका डर था कि मुसलमान न भड़क जाएँ ! हिंदू आग बगोला न हो ! ऐसा आज का सच है सॉफ-सॉफ!! लेकिन सियासत के लोगों को चैन कहाँ! अमर सिंह मुसलमानों के मसीहा कब हो गये!
खामोश! अब हम जाग चुके हैं. संघ की बातें संघी जाने???
एक शायर के हवाले से मैं इतना ही कहूँगा:
मिंहदम-गुंबद अभी तक माइल-ए-फर्याद है
मेरी इक-इक ईंट मज़लूमी की इक रूदाद है
देखना है क़ातिलों को कौन देता है सज़ा
नाम तो मुझको भी अपने क़ातिलों का याद है!!!
१. नष्ट गुंबद, २. फर्याद करता है,३. अत्याचार, ४. दुखांत-कथा