जिंदादिल इंसान और उम्दा लेखक का जाना !
बाबूजी के पास सुबह-सुबह पहुंचा.सहारा उठाया : रमेश बत्रा नहीं रहे!
सहसा विशवास नहीं हुआ. लेकिन दिल्ली की कई तल्खियों की तरह यह भी स्वीकारना विवशता थी.कभी लगता है, बत्रा जी ने आत्महत्या की.एकबारगी नहीं, धीरे-धीरे!खुद को मौत की जानिब धकेलते रहे.तुरंत ख्याल हुआ,पाश या सफ़दर शहीद माने जाते हैं.लेकिन क्या रमेश बत्रा! हकीकत तो यही है कि उनहोंने शराब में खुद को डुबोकर ख़ुदकुशी नहीं की, बल्कि वो भी मारे गए, समय के क्रूर पंजों ने उन्हें भी निगल लिया, आहिस्ता-आहिस्ता निचोड़ते हुए.मारे गए,अपने ही लोगों के हाथों!!
लेखक-पत्रकार बिरादरी के छद्म से वह तंग आ चुके थे.उनके काइयांपन और मौकापरस्ती से आहत थे.लेकिन ज़ख्म उन्हें इतने गहरे, इतने तिक्त मिले कि, इनसे संघर्ष करने की बजाय अपनी इहलीला समाप्त करना आपने उचित समझा!
कमलेश्वर जैसे लेखक उनसे बहुत स्नेह रखते थे,ऐसा बत्राजी ने मुझसे कहा था.लेकिन यह शे'र भी तो है:
साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर
अफ़सोस तो करते हैं, इमदाद नहीं करते!
एक अच्छा फ़नकार ! जिसके कलम में गज़ब का जादू था!आँखों में लबालब संभावनाएं! ललाट पर तेज! कुछ कर गुजरने की ऊर्जा! और विचारशील मस्तक! सारिका में उपसंपादक, सन्डे मेल में सहायक संपादक, नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता , लघु-कथा आन्दोलन के संस्थापकों में से एक . पजाबी कथा-साहित्य की श्रेष्ठ रचनाएं उनहोंने बज़रिये अनुवाद हिंदी में प्रस्तुत की . लघु-कथा के अलावा उनहोंने कई उम्दा कहानी भी हिंदी-जगत को दी, जो संग्रहणीय है.
पचास वर्ष भी तो अभी पूरे नहीं हुए थे, उनके! बहुत कुछ उन्हें करना था.बच्चे भी है.काफी दिनों से परिवार से अलग रह रहे थे.प्रेम-विवाह किया था.
शाम हीरालाल नागर के यहाँ पहुंचा.वह भी उद्विग्न दिखे.कई मार्मिक संस्मरण सुनाया, हम दोनों की आँखें पनीली होती रहीं.उन्हें रात ही खबर मिल गयी थी.
बत्राजी से मेरी मुलाक़ात कथादेश का दफ्तर-कम-हरिनारायण जी के घर पर हुई थी.[कमोबेश दो माह मैंने बतौर उपसंपादक वहाँ काम किया है.] पहले तो मैं उन्हें लक्ष्मीप्रसाद पन्त समझता रहा.गौर वर्ण , लंबा चौड़ा कंधा, जहां हम जैसे अभागे रोया करते.कंधा ज़रा झुक जाता जब आप खड़े होते.सामने के बाल साफ़.धीरे-धीरे परिचय हुआ.बहुत जल्द ही हमारे आत्मीय हो गए.यह मेरी नहीं उनकी खूबी का असर था.नाम तो सुन ही रखा था.कहानियां भी पढ़ रखी थीं.सारिका और सन्डे मेल की प्रिंट लाइन में नाम भी देख रखा था.रहना क्या वह कथादेश के कार्यालय सहायक-कम-घरेलु चाकर नवीन के साथ एक गोदाम नुमा कमरे में सोया करते थे.और अक्सर दोपहर तक वहाँ मिल जाते.हरिनारायण जी कहते, मैं उनसे ज़्यादा संपर्क न रखूं.विश्वास करने लायक आदमी नहीं हैं.लेकिन मुझे वहउतने ही अधीक विश्वसनीय लगे.जितना कोई किसी का अपना हो सकता है.
लोग कहते हैं कि एक समय बत्राजी ने विभांशु दिव्याल और हरिनारायण जी की पर्याप्त सहायता की थी.और ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा थी जिनकी उनहोंने मदद की थी.जब उक्त दोनों सज्जन दिल्ली आये थे तो नए थे.और रमेश बत्रा स्थापित नाम था.राजधानी के प्रेस और साहित्यिक गलियारे का.कथादेश के शुरूआती दौर में उनका काफी सहयोग रहा.
आख़री समय बहुत पीने लगे थे.कभी मैं कहता,
बस!!
शहरोज़ सब ठीक हो जाएगा!
हां भैया क्यों नहीं!
उनहोंने इधर लिखना-पढना बिलकुल स्थगित कर रखा था.यह स्थगन ज़िन्दगी के साथ भी था.
मुझे लगता है कि परिवार, समाज के अलावा कहीं न कहीं लेखक बिरादरी भी उनकी असामयिक मौत की जिम्मेवार रही है.हरिनारायण जी बहुत चिढ़ते थे.उन दिनों नवीन छुट्टी पर था.अफसर-मित्र की ज्योतिष-पत्रिका के दफ्तर में एक मेज़ कथादेश को भी नसीब हो गयी थी.हरिनारायण जी दोपहर बाद वहीँ निकल जाते.फ्लैट की ताली मुझे विभान्शुजी के घर पर देनी पड़ती थी.और यह बात मुझे बत्राजी को बताने की मनाही थी.ऐसा शायद इसलिए कि हरिनारायण जी नहीं चाहते थे कि बत्रा जी उनके यहाँ और रात गुजारें.मुझे ऐसा करना हमेशा गुनाह लगता रहा . लेकिन नया -नया दिल्ली आया युवक और पहली नौकरी.इस पेच-ख़म से अनजान था.
और एक दिन बत्राजी वहाँ से निकल गए.वहाँ के बाद कहाँ गए, मुझे अंत तक मालूम न हो सका.अंतिम मुलाक़ात नवभारत टाइम्स में हुई.मुंह से भभका फूटा .इधर-उधर की बात-चीत तो होती रही.पर मैं यह न पूछ सका कि वह इन दिनों कहाँ क़याम-पज़ीर हैं.
मुझे नींद नहीं आ रही है!!
और हंसी भी आ रही है.कल शोक सभा होगी.और लोग टेसुए बहायेंगे.ज़ार-ज़ार!!!
[वरिष्ठ लेखक विष्णुचंद्र शर्मा जिन्हें मैं सहज ही बाबूजी कहता हूँ.इस क्रूर शहर में मुझे उन्हों ने ही आश्रय दिया था, जब अपने भी मुहं घुमाए फिर रहे थे.खैर यह अवांतर प्रसंग है.उनदिनों मैं उनके यहाँ ही रहा करता था.डायरी का अंश है, जिसे उसी दिन यानी १६.३.१९९९ रात बेचैनी के आलम में मैंने लिखा था.] स्तम्भ :संस्मरण/व्यक्तित्व
11 comments:
रमेश बतरा के निधन का समाचार पा कर दुखः हुआ। उन से मेरी भेंट 1978 जनवरी में मुंबई में हुई थी जब वे सारिका के उपसंपादक थे। वे मुझे अपने आवास ले गए थे जहाँ वे किसी हॉस्टल के एक कमरे में एक साथी के साथ रहते थे। उस कमरे ने ही मुझे मुंबई से वापस लौटा दिया था। और मैं ने फिर वकालत की राह पकड़ी थी। बतरा अच्छे और नेक इंसान थे।
उन्हें हार्दिक श्रद्धांजली।
रमेश बतरा जी से मिला तो नही, लेकिन आप के लेख से काफ़ी कुछ जाना उन के बारे.
मेरी तरफ़ से उन्हे हार्दिक श्रद्धांजली
खूब पढा है मैने बत्रा साहब को. मन दुखी हो गया. हार्दिक श्रद्धान्जलि.
हम्म जिंदगी ऐसी ही है क्रूर
भले लोग यहाँ टिक नहीं पाते, आंधी से उनके कदम उखड़ जाते हैं
बत्रा जी भी सूरज कि तरह चमके और और शाम होते होते डूब गए
काश कि वो इस दुनिया से अपने को बचा पाते और लम्बी ज़िन्दगी पाते
अच्छे इंसान को मेरी भी श्रद्धांजलि
haardik shradhanjali batra sahab ko
लोग पता नहीं क्यों बिना पढ़े ही कमेन्ट करने लगते हैं. इस से बेहतर हो किऐसी जल्दीबाजी से परहेज़ करना चाहिए. कमेन्ट न करें.गर पढ़ें तभी करें.
अग्रज रचनाकार साथी बड़े भाई रमेश बत्रा जी को गुज़रे हुए अब दशक भर हो गया!!!
यहाँ उनकी याद में संस्मरण है, जो लेखक की डाइरी का अंश है.
आपकी डायरी का यह अंश बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर गया...बत्रा साहब से गहरी सहानुभूति होते हुए भी उनका यूँ ज़िन्दगी से हार मान लेना सही नहीं लगता...बहुत लोगों को मनचाहा नहीं मिलता...दोस्तों से अपनों से धोखे मिलते हैं...पर वे खुद को शराब में तो नहीं डुबो लेते....और मैं हमेशा कहती हूँ,साहित्य,किताबों से ज़िन्दगी को ताकत मिलती है,ठहराव मिलता है...और उसके पुजारी होने पर भी इतनी कमजोरी...वैसे जिसपर गुजरती है,वही जानता है..बत्रा साहब जरूर अतिसंवेदनशील इंसान रहें होंगे
उन्हें विनम्र श्रधांजलि
"साहिल के तमाशाई , हर डूबने बाले पर !
अफ़सोस तो करते हैं ,इमदाद नहीं करते !"
शाबाश शहरोज भाई , बत्रा जी के बारे में जानकार गहरा अफ़सोस हुआ , क्यों न ऐसे लोगों की मदद के लिए कुछ किया जाए ...कुछ फंड इकट्ठा करने का प्रयत्न आदि ...
आपके जज्बे को सलाम !!
.... स्वरचित एक शेर समर्पित करता हूं -
"हम जानते हैं तुम, मर कर न मर सके
हम जीते तो हैं, पर जिंदा नही हैं।"
.... बेहद संवेदनशील संस्मरण/अभिव्यक्ति !!!!
बत्रा जी को हार्दिक श्रद्धांजली ...मन दुखी हो गया जानकर.
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