-बिस्मिल अज़ीमाबादी!
जी हाँ!! इस मशहूर क्रांतिकारी पंक्ति जिसने अंग्रेजों की चूलें हिला दीं थीं. जिसे गुनगुनाते हुए अपना सर्वस्व होम करना देशवासी अपना फ़र्ज़ समझते थे. इस ग़ज़ल के रचयिता आप ही हैं. दरअसल ख्यात देशभक्त जिनपर हमें नाज़ है, रामप्रसाद बिस्मिल को ये ग़ज़ल बहुत पसंद थी और खबर ये भी है कि इस ज़मीन पर आपने भी ग़ज़ल लिखी थी , उसमें बिस्मिल अज़ीमाबादी के मिसरे यानी पहली पंक्ति का उपयोग भी किया था.तो साथियों धीरे-धीरे ये पूरी ग़ज़ल ही उनके नाम होंकर रह गयी.बहुत दिनों से लोग इस पर काम कर रहे थे.अली सरदार जाफरी ने भी इन्हें प्रकाश में लाने की सार्थक पहल की.
लेकिन बिस्मिल अज़ीमाबादी या उनके परिवार के लोगो की इसमें रुचि ज्यादा नहीं थी. उनका दीवान हिकायत-ए-हस्ती भी बहुत बाद [1980] में प्रकाशित होंकर आ सका.
मेरा जन्म जिस कस्बाई शहर शेरघाटी में हुआ , हमारे मोहल्ले में ही बिस्मिल अज़ीमाबादी की बेटी की शादी काजी हाउस के अहमद जुबैर [कृषि वैज्ञानिक]से हुई थी. सो मेरा झुकाव ज़ाहिर है, बिस्मिल अज़ीमाबादी की रचनाओं को ढूंढ-ढूंढ कर पढने में रहा.
इस गुमनाम रहे शायर का असली नाम सैयद शाह मोहम्मद हसन उर्फ़ शाह झब्बो था . तखल्लुस बिस्मिल रखा . पटना के बाशिंदे थे सो उर्दू की परम्परानुसार अज़ीमाबादी !!उर्दू-शायरों का ये स्थान-प्रेम मुझे बहुत अच्छा लगता है. यूँ जन्म आपका पटने से तीस किलोमीटर पर स्थित गाँव खुसरू पूर में हुआ. लेकिन दो साल के रहे होंगे कि पिता चल बसे.शिक्षा-दीक्षा का दायित्व नाना सैयद शाह मुबारक हुसैन ने संभाला. पढने-लिखने के लिए कई जगह ले जाए गए, लेकिन जिसे नामी-गिरामी सनद कहा जाता है, हासिल न कर सके. हाँ समकालीन रिवाज की दो भाषाएँ अरबी और फ़ारसी का ज्ञान अवश्य ग्रहण कर लिया. उर्दू तो इनकी रगों में पैवस्त थी. पढ़ते क्या ख़ाक!! मन तो मुल्क की आज़ादी के लिए मचलता था और ज़हन ग़ज़ल की तलाश में यत्नशील. शुरुआत में शाइरी की इस्लाह शाद अज़ीमाबादी से लेते रहे. इनके बाद मुबारक अज़ीमाबादी को उस्ताद माना.तब इनकी उम्र महज़ 20 साल के आसपास रही होगी, 1921 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इन्होंने इस ग़ज़ल को सुनाया था. अगले साल जब 1922 में काज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार ने अपनी पत्रिका ‘सबाह’ में इस ग़ज़ल को छापा, तो अंग्रेज़ी हुकूमत तिलमिला गई। सभी अंक ज़ब्त कर लिए गए थे.
अब इस संक्षिप्त भूमिका के बाद आप इनकी ख्यात ग़ज़ल से खुद रूबरू हों:
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजूए कातिल में है
ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत में तेरे ऊपर निसार
ले तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल मैं है
आज फिर मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार
आयें वह, शौक़े-शहादत जिनके-जिनके दिल में है
वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्यों बताएँ क्या हमारे दिल में है
अब न अगले वलवले हैं और न वह अरमाँ की भीड़
सिर्फ़ मिट जाने की इक हसरत दिले-बिस्मिल में है
[बिहार बोर्ड के कक्षा नौवीं के उर्दू के पाठ्यक्रम में पुस्तक द्रखशाँ में ये ग़ज़ल शामिल की गयी है.यही कहा जा सकता है, देर आयद दुरुस्त आयद! ]
स्तम्भ:व्यक्तित्व
जी हाँ!! इस मशहूर क्रांतिकारी पंक्ति जिसने अंग्रेजों की चूलें हिला दीं थीं. जिसे गुनगुनाते हुए अपना सर्वस्व होम करना देशवासी अपना फ़र्ज़ समझते थे. इस ग़ज़ल के रचयिता आप ही हैं. दरअसल ख्यात देशभक्त जिनपर हमें नाज़ है, रामप्रसाद बिस्मिल को ये ग़ज़ल बहुत पसंद थी और खबर ये भी है कि इस ज़मीन पर आपने भी ग़ज़ल लिखी थी , उसमें बिस्मिल अज़ीमाबादी के मिसरे यानी पहली पंक्ति का उपयोग भी किया था.तो साथियों धीरे-धीरे ये पूरी ग़ज़ल ही उनके नाम होंकर रह गयी.बहुत दिनों से लोग इस पर काम कर रहे थे.अली सरदार जाफरी ने भी इन्हें प्रकाश में लाने की सार्थक पहल की.
लेकिन बिस्मिल अज़ीमाबादी या उनके परिवार के लोगो की इसमें रुचि ज्यादा नहीं थी. उनका दीवान हिकायत-ए-हस्ती भी बहुत बाद [1980] में प्रकाशित होंकर आ सका.
मेरा जन्म जिस कस्बाई शहर शेरघाटी में हुआ , हमारे मोहल्ले में ही बिस्मिल अज़ीमाबादी की बेटी की शादी काजी हाउस के अहमद जुबैर [कृषि वैज्ञानिक]से हुई थी. सो मेरा झुकाव ज़ाहिर है, बिस्मिल अज़ीमाबादी की रचनाओं को ढूंढ-ढूंढ कर पढने में रहा.
इस गुमनाम रहे शायर का असली नाम सैयद शाह मोहम्मद हसन उर्फ़ शाह झब्बो था . तखल्लुस बिस्मिल रखा . पटना के बाशिंदे थे सो उर्दू की परम्परानुसार अज़ीमाबादी !!उर्दू-शायरों का ये स्थान-प्रेम मुझे बहुत अच्छा लगता है. यूँ जन्म आपका पटने से तीस किलोमीटर पर स्थित गाँव खुसरू पूर में हुआ. लेकिन दो साल के रहे होंगे कि पिता चल बसे.शिक्षा-दीक्षा का दायित्व नाना सैयद शाह मुबारक हुसैन ने संभाला. पढने-लिखने के लिए कई जगह ले जाए गए, लेकिन जिसे नामी-गिरामी सनद कहा जाता है, हासिल न कर सके. हाँ समकालीन रिवाज की दो भाषाएँ अरबी और फ़ारसी का ज्ञान अवश्य ग्रहण कर लिया. उर्दू तो इनकी रगों में पैवस्त थी. पढ़ते क्या ख़ाक!! मन तो मुल्क की आज़ादी के लिए मचलता था और ज़हन ग़ज़ल की तलाश में यत्नशील. शुरुआत में शाइरी की इस्लाह शाद अज़ीमाबादी से लेते रहे. इनके बाद मुबारक अज़ीमाबादी को उस्ताद माना.तब इनकी उम्र महज़ 20 साल के आसपास रही होगी, 1921 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इन्होंने इस ग़ज़ल को सुनाया था. अगले साल जब 1922 में काज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार ने अपनी पत्रिका ‘सबाह’ में इस ग़ज़ल को छापा, तो अंग्रेज़ी हुकूमत तिलमिला गई। सभी अंक ज़ब्त कर लिए गए थे.
अब इस संक्षिप्त भूमिका के बाद आप इनकी ख्यात ग़ज़ल से खुद रूबरू हों:
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजूए कातिल में है
ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत में तेरे ऊपर निसार
ले तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल मैं है
आज फिर मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार
आयें वह, शौक़े-शहादत जिनके-जिनके दिल में है
वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्यों बताएँ क्या हमारे दिल में है
अब न अगले वलवले हैं और न वह अरमाँ की भीड़
सिर्फ़ मिट जाने की इक हसरत दिले-बिस्मिल में है
[बिहार बोर्ड के कक्षा नौवीं के उर्दू के पाठ्यक्रम में पुस्तक द्रखशाँ में ये ग़ज़ल शामिल की गयी है.यही कहा जा सकता है, देर आयद दुरुस्त आयद! ]
स्तम्भ:व्यक्तित्व
13 comments:
बहुत ही मालूमाती मज़मून!!पता नहीं क्यों लोग ऐसे जान्फरोशों को भूल जाते हैं.
आपने अच्छी बिस्मिल्लाह की है, उम्मीद है की मुस्लिम शहीदों के बारे मैं आप मालूमात में इजाफा करेंगे.
shahroz saahab, aap kahaan se dhoondh laaye.
lekin bahut hi achcha kiya.main bismil azimaabaadi ke saahabzaaze janab mehndi hasan sahab se mil chuka hun.bahut hi achche aap artist the.ab nahin rahe.mere aap khaaloo jinhain aap hindi waale mausa kahte hain lagte the.
bismil sahab ko aapne yaad kiya.shukriya.maloomaati mazamin dete rahen.
shaziya
priy sharoj, achchhi jankaaree dee. mujhe is baat kee thodi-bahut jankaaree thee. aam logo ko bhi pataa rahe, lekin ab to yah rachnaa ramprasaad bismil ke hi khaate me chalee gayee hai.tarahee misare kaa chakkar hi rahaa hoga. fir bhi vastavik rachanaakaar ko uska haq milanaa hi chahiye. ramprasaad pranaamy hai. rahenge bhi. unka takhllus 'bismil' thaa. yah badee baat hai. ve kaumee ekataa ke prateek they. ek baar fir achchhee jankaaree ke liye mubarakbaad.
बहुत अच्छी जानकारी दी आप ने बिस्मिल अजीमाबादी जी के बारे इन सभी शहिदो ओर नमन , सलाम ओर शाहिद कभी धर देख कर नही बनते, उन के विचार हम आम आदमी से बहुत उंचे होते है, ओर talib साहिब से गुजारिस करुंगा कि वो हमारे इन महान शहिदो को धर के नाम से मत पहचाने, यह राज नीनि आज की है उस समय तो सब के दिलो मै एक जनून था आजादी का सच्ची देश भगति का, ओर यह आजादी हमे हमारे इन बुजुर्गो ने अपनी जान पर खेल कर दी है, इस लिये आओ मिल कर इन्हे सलाम करे नमन करे,
आप ने बहुत सुंदर लेख लिखा धन्यवाद
बिस्मिल अजीमाबादी के बारे मे थोड़ा पढ़ा था पहले..और उनकी यह गज़ल तो आज भी नसों मे उबाल ला देती है..उनके बारे मे और जानकारी बाँटने के लिये शुक्रिया..!!
शहरोज़ जी ! ये पंक्तियाँ शायद जब से पैदा हुए हैं तब से सुनी हैं और हर बार सुनकर ,बोलकर एक जोश सा महसूस होता है.आज वो पूरी ग़ज़ल और उस रचियता के वाकिफ करा कर आपने कृतज्ञ कर दिया.बहुत शुक्रिया आपका.
shahroz sahab,shukriya ap aik aise unsung hero ko samne laye jinhen shayad bahut kam log jante hain,maine nam suna tha lekin main inke bare men kuchh bhi nahin janti thi .
talib sahab apse maazrat ke sath ye kahna chahti hoon ki hubbulwatani ke is jazbe ko meharbani karke kisi mazhab ya qaum se jod kar na dekhen .
इस बारे में मेरा कई लोगों से विवाद हो चुका है पहले भी। लोगों को कई दफ़ा समझा समझा कर थक गया कि ये विख्यार ग़ज़ल रामप्रसाद बिस्मिल की नहीं वरन बिस्मिल अज़ीमाबादी की है। शुक्र है कि कम से कम किसी एक ने मेरा साथ तो दिया....आपका बहुत बहुत शुक्र्या सर!
बिस्मिल अजीमाबादी पर यह शोधपरक आलेख देकर आपने उत्तम कार्य किया है.
शुक्रिया आपका.
बेहतरीन जानकारी के लिए शुक्रिया !!
वाह कितनी सुन्दर, तथ्यपरक जानकारी है. बचपन से लेकर आज तक इन पंक्तियों को गुनगुनाती, सस्वर गाती रही, लेकिन नादानी तो देखिये, कभी इसके रचयिता को खोजने जानने की कोशिश ही नहीं की. तालिब साहब आप इस्मत साहिबा और राज साहब की सलाह पर ज़रूर गौर फ़रमायें. तब केवल एक ही मजहब था, आज हमने इतने बना दिये.
bohot khoob kaha Vandanaji...totally agree with your words...& appreciate everybody's effort in this regards.
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