
[जिसे पढ़कर हँसी आ जाय वो हास्य हो सकता है,लेकिन जिस रचना का पाठ अन्तस् तक विचलित कर दे वही व्यंग्य हैं।
राजपाल से उर्दू व्यंग्य पर हमारी एक पुस्तक आई
उर्दू के श्रेष्ट व्यंग्य इस पुस्तक की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि उर्दू के कुछ महत्त्वपूर्ण व्यंग्य लेखकों की श्रेष्ठ रचनाओं के चयन का अभाव हिन्दी में अरसे से महसूस किया जा रहा था। व्यंग्य लेखकों की सूची तो काफ़ी बड़ी है। इस चयन में उन्हीं लेखों को शामिल किया गया है, जिसका पूरा सरोकार व्यंग्य से है। मेरा पूरा प्रयास रहा है कि हर लेखक की प्रतिनिधि-रचना अवश्य ली जा सके। समय अभाव तथा कहीं यह ग्रन्थ का आकार न ले ले, इस संकट से बचने का प्रयास भी रहा है। सम्भव है किसी को इस चयन के श्रेष्ठ व्यंग्य कहने पर आपत्ति हो, जो जायज़ है। मेरा दावा भी नहीं है, कोशिश भर की है। कई महत्त्वपूर्ण लेखक छूट गए हैं। चयन या संकलन का दायित्व सदैव विवादास्पद रहा है। इस चयन को तैयार करने में मुज्तबा हुसैन साहब का सर्वाधिक योगदान रहा है। उसके बाद वरिष्ठ हिन्दी कवि-लेखक विष्णुचन्द्र शर्माजी का बार-बार दबाव है। साथी कृष्णचन्द्र चौधरी तथा भाई नईम अहमद ने सामग्री संकलन में मदद की। मैं इन सबका तहेदिल से आभारी हूँ। आईये इसके सम्पादकीय ही से सही आपका परिचय करा ता चलूँ, मुमकिन है साहित्यतिहास के खोजियों को कुछ मदद मिल सके.]
व्यंग्य-लेखन हमारे यहाँ सामान्यतः दूसरे दर्जे की विधा मानी जाती है। माना यह जाता है कि हमारे भाषायी संस्कार में हास्य और व्यंग्य का तत्व आदि समय से ही अस्तित्व में है। इसका कारण है, उर्दू तथा हिन्दी में शामिल संस्कृत तथा अरबी-फ़ारसी शब्दों, मुहावरों की बहुलता, जो देशज भाषा तथा बोलियों में आकर अनूठे आकर्षण पैदा करते हैं। शेक्सपियर, आर्नोल्ड तथा अलेक्ज़ेण्डर पोप जैसे अंग्रेज़ी कवियों की पंक्तियों में उपस्थित समसामयिक स्थितियों, विडम्बनाओं पर तीक्ष्ण वार जब व्यंग्य माने जाने लगे तो हमने भी बाज़ाप्ता भारतीय सन्दर्भों में ऐसे रचनाकारों की खोज-बीन शुरू की, पता यूँ चला कि मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के समय पैदा हुआ जाफ़र ज़टुल्ली (1659 ई.) भारत का पहला व्यंग्य-कवि है। औरंगज़ेब के शासनकाल में मृत्यु को प्राप्त इस कवि ने कछुआनामा, भूतनामा जैसे अमर-काव्य की रचना की। औरंगज़ेब की मौत के बाद सत्ता के लिए उसके पुत्रों के मध्य हुए युद्ध को केन्द्र में रखकर रचित उनकी कविता जंगनामा व्यंग्य-इतिहास में मील का पत्थर है।
योरोप की भाँति भारतीय उपमहाद्वीप में भी व्यंग्य जैसी अचूक विधा का प्रयोग सबसे अधिक पद्य में किया गया। जाफ़र ज़टुल्ली से यह शुरू होकर कबीर, मीर, सौदा, नज़ीर अकराबादी, अकबर इलाहाबादी, रंगीन इंशा आदि अनगिनत उर्दू शायरों के यहाँ सामाजिक व्यवस्थाओं तथा धार्मिक अन्धविश्वासों पर कटाक्ष मिलता है। ग़ालिब जैसा शायर अपने ख़तों के माध्यम से साहित्य जगत् को उच्च स्तर का व्यंग्य-गद्य देता है। लेकिन व्यंग्य की विधा को स्वीकृति मिली 1877 में लखनऊ से मुंशी सज्जाद हुसैन के सम्पादन में संचालित पत्र अवधपंच के प्रकाशन से।
उर्दू व्यंग्य के इतिहास को पृष्ठवद्ध करना तथा क़रीब-क़रीब सभी नामचीन लोगों की रचनाओं को शामिल करना दुष्कर न सही कठिन-कर्म अवश्य है। बीती सदी भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक विकास की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। अन्य विधाओं की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। अन्य विधाओं की तरह व्यंग्य को इसी युग में लोकप्रियता मिली। जब उर्दू में व्यंग्य की बात की जाती है तो इसका अर्थ-आशय गम्भीर-गद्य लेखन से लगाया जाता है, जहाँ शब्द समय की विसंगतियों पर प्रकाश डालते हैं तथा यही शब्द मुक्ति का मार्ग भी बतलाते हैं। यह सिर्फ़ गुदगुदाते ही नहीं हैं। हमें अपने आप को नये सिरे से सोचने पर विवश भी करते हैं। सिर्फ़ चुटकुलेबाज़ी को व्यंग्य नहीं माना जा सकता है, जैसा इन दिनों कवि-सम्मेलनों के हास्य रस के कवि कर रहे हैं।
बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में व्यंग्य-निबन्धकारों में महफ़ूज अली बदायूँनी, ख़्वाजा हसन निज़ामी, क़ाज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार, हाजी लक़लक़, मौलाना अबुलकलाम आज़ाद, अब्दुल अज़ीज़, फ़लक पैमा आदि का नाम सफ़े-अव्वल है। उसके बाद फ़रहत उल्लाह बेग, पतरस बुख़ारी, रशीद अहमद सिद्दीक़ी, मुल्ला रमूज़ी, अज़ीम बेग चुग्ताई, इम्तियाज़ अली ताज, शौकत थानवी, राजा मेंहदी अली ख़ान और अंजुम मानपुरी आदि व्यंग्यलेखकों का नाम और काम नज़र आता है। इसी दौर के इब्न-ए-इंशा भी हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू व्यंग्य लेखन के इतिहास में एक के बाद कई क़लमकारों का नाम दर्ज होता गया, लेकिन जिनमें ख़म था, उन्हीं को लोग दम साधे पढ़ते रहे, सुनते रहे। ऐसे ही कागद कारे करने वालों में कन्हैया लाल कपूर, फ़िक्र तौंसवी, मोहम्मद ख़ालिद अख़्तर, शफ़ीक़ुर्रहमान, कर्नल मोहम्मद ख़ान कृश्न चन्दर, मुश्ताक़ अहमद युसफ़ी, मुश्फ़िक़ ख़्वाजा, फुरक़त काकोरवी, युसुफ़ नाज़िम, इब्राहिम जलीस, मुज्तबा हुसैन अहमद जमाल पाशा, नरेंद्र लूथर दिलीप सिंह, शफ़ीक़ा फ़रहत आदि हस्ताक्षर प्रथम पंक्ति में अंकित किए जा सकते हैं।
अज़ीम बेग चुग्ताई मूलतः व्यंग्यकार नहीं हैं। लेकिन अपने अफ़सानों में उन्होंने जगह-जगह जो व्यंग्य की छौंक लगाई उसने उनके व्यंग्य को परिपक्व किया। इक्का, कोलतार, शातिर की बीवी आदि निबन्ध चर्चित व्यंग्य हैं। चुग्ताई के समकालीन मिर्ज़ा फ़रहत उल्लाह बेग की भाषा में मुहावरों का यथेष्ट इस्तेमाल मिलता है। कहा जाता है कि चुग्ताई ने व्यंग्य-कथा को जन्म दिया तो बेग ने ठेठ व्यंग्य की बुनियाद डाली। पतरस बुख़ारी के पास व्यंग्य की जो साफ़-सुथरी तकनीक मौजूद है, वो अन्यत्र दुर्लभ है। शौकत थानवी अपने समकालीन लेखकों में सर्वाधिक आकृष्ट करते हैं। परम्परा से विद्रोह इनकी पहचान है। रशीद अहमद सिद्दीक़ी के लेखन में जहाँ मनोरंजक स्थितियों का वर्णन है, तो आसपास ही व्यंग्य की तीक्ष्णता और चुभन भी आकार ग्रहण करती है। इब्न-ए-इंशा का शिल्प उन्हें दूसरों से अलग रखता है। शिष्टतापूर्वक अपनी बात रखना, साथ ही सामने वाले पर कटाक्ष भी करना अर्थात साँप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे। उन्होंने उर्दू में व्यंग्य की विधा को एक नई ऊँचाई दी। बातों-बातों में हँसा देना फिर रुला देना यह शफ़ीक़ुर्रमान के बूते में था। अंग्रेज़ी साहित्य में ऐसी कला स्टीफन लीकॉक के पास थी। अहमद जमाल पाशा के व्यंग्य निबन्धों के कई संग्रह प्रकाशित हुए। उन्होंने व्यंग्य विधा को नितान्त नये शिल्प विधान में ढालने का यत्न किया। उनके निबन्धों में हास्य-व्यंग्य ऐसे रचे-बसे हैं कि आप उनकी अलग-अलग पहचान नहीं कर सकते। युसुफ़ नाज़िम वरिष्ठ व्यंग्य लेखक हैं। जिनके व्यंग्य तथा शब्दचित्र जितने लोकप्रिय हुए, उतनी ही लोकप्रियता उनकी अन्य रचनाओं को भी मिली। दरअसल अन्य विधाओं में भी वे व्यंग्य का इस्तेमाल इतने चातुर्य से करते हैं कि देखने वालों की आँखें ख़ुली की खुली रह जाती हैं। फ़िक्र तौंसवी उर्दू व्यंग्य साहित्य का स्तम्भ हस्ताक्षर हैं। इस व्यंग्यशिल्पी की मेधा ग़जब की थी। दैनिक मिलाप में वर्षों प्रकाशित इस लेखक के कॉलम ‘प्याज़ के छिलके’ के समान ही कॉलम में तह-दर-तह विडम्बनाओं का उद्धघाटन होता जाता था।
कृश्न चन्दर अफ़सानानिसार के नाते स्थापित हैं। लेकिन अपने गद्य लेखन की शुरुआत उन्होंने व्यंग्य से ही की थी। कन्हैयलाल कपूर का सम्पूर्ण सरोकार व्यंग्य से ही सम्बद्ध रहा है। दिलीप सिंह का उदय थोड़ा विलम्ब से अवश्य होता है, लेकिन उनके निबन्धों ने गम्भीर पाठकों का ध्यान बरबस आकृष्ट किया। आज़ादी के बाद यदि सबसे ज़्यादा ध्यान किसी व्यंग्यकार ने खींचा है तो वह हैं मुज्तबा हुसैन। हर घटना में व्यंग्य का तत्व। हर बात में हास्य का रस। यह उनका परिचय है। अपने लेखन का आरम्भ आपने उर्दू दैनिक सियासत से किया। उसके बाद आपकी क़लम सतत चलायमान है। नये शब्द और मुहावरे गढ़ने में भी सिद्धहस्त हैं। व्यंग्य-निबन्धों के अतिरिक्त आपके ख़ाके (शब्दचित्र) और यात्रा-संस्मरण ने पाठक और आलोचक को प्रभावित किया है। मुज्तबा हुसैन के बाद उर्दू में व्यंग्य परम्परा को आगे ले जाने वालों में वो साहस दिखलाई नहीं पड़ता है। यूँ तो कई नाम हैं, लेकिन वे अभी तिफ़ले-मक्तब ही जान पड़ते हैं। अभी काफ़ी अभ्यास की ज़रूरत है। हास्य को ही व्यंग्य नहीं समझा जा सकता।