गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

अफ़ज़ल से हम हिसाब करें

, यह मीनारों मेहनत से उठती अज़ानें
मशीनों में ढलते यह ग़म के तराने

नए साल की खै़रियत चाहते हैं
इबादत में डूबे यह कल कारख़ाने

यह माटी की महिमा है, माथे से लगा लो
यह पत्थर की मूरत है, सर को झुका लो

यह लाशें तरसती रही hain कफ़न को
नए साल में पहले इसको संभालो

बहुत पहले नर्मेश्वर उपाध्याय की यह कविता पढ़ी थी। कुछ पंक्तियां एक पुरानी डायरी में मिल गईं। लगा आप से साझा कर लें। नए वर्ष की आप सभी को नेक मुबारकबाद!
नए सवेरे में कोई दहशत में न जीये। राहत इंदौरी के इस शे’र को हम साकार करें, यही तमन्ना हैः

दहशत पसार पाए न पैर अपने मुल्क  में
अफ़ज़ल से हम हिसाब करें,साध्वी से तुम



Terrorism in India: A Strategy of Deterrence for India's National SecurityTerrorism: History and Facets in the World and in India 

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

बच्चे कभी दूध की बोतल नहीं पीते

फिर बच्चे चर्चा में हैं । एक ताज़ा सर्वे कहता है कि देश में 52 फीसदी बच्चे यौन दुर्व्यवहार   के शिकार होते हैं। 14 साला बच्ची से यौन अनाचार करने वाले पुलिस के एक वरिष्ठ अफ़सर की तस्वीर दांत निपोरते हुए छपती है। उसे महज़ छह माह की सज़ा मिली है और तुर्रा यह कि उसे ज़मानत भी मिल गयी। इस अफ़सर ने उदीयमान टेनिस खिलाड़ी के साथ यौन उत्पीड़न करने की कायरपूर्ण हरकत की थी। उसे इंसाफ़ मिलना तो दूर पुलिस ने उसे और उसके घरवालों को  ही धमकी देनी शुरू कर दी, जिसका कुपरिणाम यह हुआ कि उस किशोरी ने आत्महत्या कर ली। यह पढ़े लिखे घर का किस्सा है, जिसे न्याय नहीं मिला। उन बच्चों की दशा तो और भी बदतर है, जो गली कूचे में कबाड़ बीनते दिखलाई पड़ते हैं। किसी ढाबा में बरतन मांजते हैं। स्टेशन पर बूट पालिश करते हैं।

बचपन से यह फ़िक़रा सुनते आए हैं कि बच्चे देश के कर्णधार होते हैं, आज के यही बच्चे कल मुल्क की बागडोर संभालेंगे। पूरी तरह सच लगने वाली ऐसी कई उक्तियां जनमानस में सदियों से सत्य की शक्ल में दर्ज है। लेकिन कौन से बच्चे?फुटपाथ पर कबाड़ बीनने वाले या झुग्गियों में गोली बाटी खेलते अर्धनग्न बच्चे या 30से 40 हज़ार प्रतिमाह फ़ीस देकर कान्वेंट में पढ़ने वाले बच्चे? भावी कर्णधारों की श्रेणी में दाने दाने और अक्षर अक्षर को मोहताज बच्चों की गिनती है? या आलीशान कोठियों में संचालित पब्लिक स्कूलों में हाय हैलो के माहौल में जीते पलते बच्चों की? ज़ाहिर है देश की बागडोर भविष्य में थामने और संचालित करने का सौभाग्य फुटपाथी बच्चों को क़तइ नहीे मिल सकता! थ्कसी मिलिनियर डाग जैसे यथार्थ चमत्कार की बात अलग है। समाजिक ढांचे का यह ताना बाना वर्षो से चला आ रहा है।

कभी दिल से उतरकर यह शेर कागज़ पर उतरा था:

सो जाते हैं फुटपाथ पर बस यूंही दुबककर
यह बच्चे कभी दूध की बोतल नहीं पीते


ऐसे बच्चे आप को राजधानी दिल्ली के बस अड्डे और रेल्वे स्टेश्नों पर खूब दिखाई दे जाएंगे। यहां इनका ऐसा शोषण होता है कि भावुक ह्रदय मन कांप उठे!कई बच्चे गरीबी और मां बाप की डांट फटकार से तंग आकर घर से इसलिए भाग आए थे कि उन्हें मंक्ति मिल जाएगी। पर वह दूसरे दुष्चक्र में आ फंसे। यहां उन्हे नसीब हुई पुलिस की गालियां, भूखए शोषण और अप्राकृतिक यौनाचार करने वालों की एक लंबी क़तार। इन स्थितियों में लड़की की! आप कल्पना कर सकते हैं । नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर ऐसे बच्चों की तादाद सबसे ज़्यादा है। यहां हर क्षेत्र अंचल के बच्चे? हर उम्र के मिल जाते हैं। आपसी दुख दर्द साझा करने के लिए यह जाति, धर्म  और क्षेत्रियता के बंधनों से मुक्त होते हैं। ज़्यादातर बच्चे कबाड़ बीनने का काम करते हैं। कबाड़ी इनसे बस, कार और रेल के पुरज़े तक चुराने का काम लेते हैं। इसके एवज़ इन्हें 15 से 20 रु रोज़ाना मिलता है। कभी इन मासूमों को भूख से बिलखना भी पड़ता है। यह भी ब्याज़ पर पैसे लेते हैं। और वापसी की कथा बहुत ही दर्दनाक होती है। पुलिस के रोज़ के डंडे खना अब इनकी आदत सी हो चुकी है।

इन से ज़रा बेहतर स्थिति ढाबा या होटलों में बर्तन मांज रहे बच्चों की है। काम के घंटे यहां भी तय नहीं! लेकिन  पगार इन्हें समय पर ज़रूर मिल जाती है। कहते हैं, पेट तो डांगर भी भर लेता है। कमोबेश यही मनोदशा इन बच्चों की है। लेकिन रोज़्- रोज़ की मार- कुटाई और अप्राकृतिक यौन शोषण से यहाँ  भी छुटकार नहीं। घरेलू नौकरों की दशा और भी बदतर है। एक मिसाल का तो मैं महिनों गवाह रहा हूं। दक्षिण दिल्ली में स्थित एक पाश कही जाने वाली कालोनी में कभी मज़दूरों के अधिकारों के लिए  लड़ाई लड़ने वाली सक्रिय एक्टिविस्ट और एक पत्रिका की संपादक कवयित्री साहित्कार रहती हैं। पत्रिका का मैं सहायक संपादक था। रहता वहीँ  था। देर रात तक वह जगतीं और हमें भी जगना पड़ता। कोफ़्त होती जब वह रात बारह बजे सारे काम निबटा कर सो रहे 12 साला किशोर को चाय बनाने के लिए उठाने लगतीं। हमारे कहने पर उनका जवाब होताः अरे खाली खाता रहता है और सोता है। जबकि उसकी दिनचर्या के हम साक्ष्य थे। एक दिन इसी मुद्दे को लेकर हमारी बहस हो गयी।

सरकार ने बाल सुधार गृह बनवाए तो हैं। यहां दिल्ली गेट स्थित भी एक है। लेकिन यहां से भी अक्सर बच्चे भाग जाते है। फ़िलवक्त यहां लगभग दो सौ के आस पास बच्चे हैं, लेकिन हरेक के मन में यहां से मुक्ति की अकांक्षा है। सरकार तो इनके बेहतर खान -पान, रहन -सहन और कपड़े- लत्ते तथा शिक्षा -दीक्षा का वायदा करती है। लेकिन ज़मीनी सच यह कहता है कि इन्हें यहां भी आध पेट खाना कपड़े के नाम पर जर्जर वर्दी और बड़े बच्चे द्वारा अप्राकृतिक यौनाचार मिलता है।






गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

कैसे करोगे शादी ! वधु मिले तब न!!

खुशियाँ और रंगीनियाँ किसे भली नहीं लगतीं.और ज़िंदगी में शादी!! ऐसा लड्डू जो खाए तो पछताए और न खाए तो भी आंसू बहाए.लेकिन जिन्हें ज़िंदगी से कूट-कूट कर प्यार है,उनकी भी तमन्ना लबरेज़ है और ढेरों लबाबब अपेक्षाएं हैं अपने संसार की! अपने घर-आँगन की, अपने राज-दुलारों की.जिनके संग वो हंसें, किलकारियों से उनकी छत गूंजे!लेकिन नियती उनसे उनका सपना , उनकी खुशियाँ छीनने को आमादा है.





अधिकाँश युवा विकलांग : नहीं राज़ी कोई शादी  करने  को



 बौद्ध की धरती मध्यबिहार हमेशा अभाव और विसंगतियों के लिए जाना जाता है। विकास के असमान  वितरण के कारण ही असंतोष जन्म लेता है। जिसका लाभ नक्सली उठाते हैं। गया से महज़ चौसठ  किलोमीटर के फ़ासले पर है आमस प्रखंड का गांव भूपनगर जहां के युवक इस बार भी अपनी शादी का सपना संजोए ही रह गए कोई उनसे विवाह को राज़ी न हुआ। वह दिल मसोस कर रह गए। वजह है उनकी विक्लांगता। इनके हाथ-पैर आड़े-तिरछे हैं, दांत झड़ चुके हैं। बक़ौल अकबर इलाहाबादी जवानी में बूढ़ापा देखा! जी हां! यहां के लोग फलोरोसिस जैसी घातक बीमारी का दंश झेलने को विवश हैं। इलाज की ख़बर यह है कि हल्की सर्दी-खांसी के लिह भी इन्हें पहाड़ लांघकर आमस जाना पड़ता है। भूदान में मिली ज़मीन की खेती कैसी होगी? बराए नाम जवाब है इसका। तो जंगल से लकड़ी काटना और बेचना यही इनका रोज़गार है।

पहले लबे-जीटी रोड झरी , छोटकी बहेरा और देल्हा गांव में खेतिहर गरीब माझी परिवार रहा करता था । बड़े ज़मींदारों की बेगारी इनका पेशा था । बदले में जो भी बासी या सड़ा-गला अनाज मिलता, गुज़र-बसर करते। भूदान आंदोलन का जलवा जब जहां पहुंचा तो ज़मींदार बनिहार प्रसाद भूप ने सन् 1956 में इन्हें यहां ज़मीन देकर बसा दिया। और यह भूपनगर हो गया। आज यहां पचास घर है। अब साक्षरता ज़रा दीखती है, लेकिन पंद्रह साल पहले अक्षरज्ञान से भी लोग अनजान थे। फ़लोरासिस की ख़बर से जब प्रशासन की आंख खुली तो लीपापोती की कड़ी में एक प्राइमरी स्कूल क़ायम कर दिया गया।

 अचानक कोई लंगड़ा कर चलने लगा तो उसके पैर की मालिश की गयी।  यह 1995 की बात है। ऐसे लोंगों की तादाद बढ़ी तो ओझा के पास दौड़े। ख़बर किसी तरह ज़िला मुख्यालय पहुंची तो जांच दल के पहुंचते 1998 का साल आ लगा था जब तक ढेरों बच्चे जवान कुबड़े हो चुके थे। चिकित्सकों ने जांच के लिए यहां का पानी प्रयोगशाला भेजा। जांच के बाद जो रिपोर्ट आई उससे न सिर्फ़ गांववाले बल्कि शासन-प्रशासन के भी कान खड़े हो गए।  लोग ज़हरीला पानी पी रहे हैं। गांव फलोरोसिस के चपेट में हैं। पानी में फलोराइड की मात्रा अधिक है। इंडिया इंस्टिट्युट आफ़ हाइजीन एंड पब्लिक हेल्थ के इंजीनियरों ने भी यहां का भुगर्भीय सर्वेक्षण किया था। जल स्रोत का अध्ययन कर रिपोर्ट दी थी। और तत्कालीन जिलाधिकारी ब्रजेश मेहरोत्रा ने गांव के मुखिया को पत्र लिखकर फ़लोरोसिस की सूचना दी थी। मानो इस घातक बीमारी से छुटकारा देना मुखिया बुलाकी मांझी के बस में हो! रीढ़ की हड्डी सिकुड़ी और कमर झुकी हुई है उनकी। अब उनकी पत्नी मतिया देवी मुखिया हैं।

शेरघाटी के एक्टिविस्ट इमरान अली कहते हैं कि राज्य विधान सभा में विपक्ष के उपनेता शकील अहमद ख़ां जब ऊर्जा मंत्री थे तो सरकारी अमले के साथ भूपनगर का दौरा किया था। उन्होंने कहा था कि आनेवाली पीढ़ी को इस भयंकर रोग से बचाने के लिए ज़रूरी है कि भूपनगर को कहीं और बसाया जाए। इस गांवबदर वाली सूचना ज़िलाधिकारी दफ्तर से तत्कालीन मुखिया को दी गयी थी कि गांव यहां से दो किलो मीटर दूर बसाया जाना है। लेकिन पुनर्वास की समुचित व्यवस्था न होने के कारण गांववालों ने मरेंगे जिएंगे यहीं रहेंगे की तर्ज़ पर भूपनगर नहीं छोड़ा। इस बीमारी में समय से पहले रीढ़ की हड्डी सिकुड़ जाती है, कमर झुक जाती है और दांत झड़ने लगते हैं। हिंदुस्तान के स्थानीय संवाददाता एस के उल्लाह ने बताया कि कुछ महिने पहले सरकार ने यहां जल शुद्धिकरण के लिए संयत्र लगाया है। लेकिन सवाल यह है कि जो लोग इस रोग के शिकार हो चुके हैं, उनके भविष्य का क्या होगा? आखि़र प्रशासन की आंख खुलने में इतनी देर क्यों होती है। वहीं मुखिया मतिया देवी की बात सच मानी जाए तो गांव अब भी इस ख़तरनाक बीमारी के चपेट में है ।

यहाँ भी पढ़ सकते हैं 


विस्तृत रपट पढने के लिए रविवार देखिये






शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

खुद भूखी चिंता दूसरों की रोटी की

सब जानते हैं कि भारत गाँव में बस्ता  है.लेकिन अभी-अभी हुए रमाकांत  कथा-सम्मान में राजेन्द्र यादव ने कहा और उचित कहा कि भारत गाँव में जीता नहीं है बल्कि मरता है.और वहाँ भी सब से अधीक दुर्दशा औरत की ही रहती है.खेती-बाडी में मजदूरी करते लोगों की संख्या करीब आठ करोड़ है और इनमें आधी संख्या औरतों की है.घर पर जो वो श्रम करती हैं.उसे जुदा रखें तो ...जिसकी चर्चा हंस के ताज़ा अंक में कवयित्री सविता सिंह ने की है कि घर न सिर्फ खाना बनाने, कपडे धोने या फिर सम्भोग को बाध्य बनाने वाली जगह है जिसेसे  परिवार में वृद्धि होती है बल्कि एक कुटीर उद्योग भी है जैसे..जहां लगातार अचार, पापड, बड़ियाँ, तिलौरियाँ, मोरेंदे इत्यादि बनते रहते हैं.इनका बनाया जाना गृहिणी होने के अतिरिक्त प्रशंसनीय गुणों को अपने आप में समाहित करना है. जैसे: अच्छी सिलाई करना, तकियों के गिलाफों या चादरों पर फूल काढना. सारियों पर गोटा लगाना, स्त्री काम का इस तरह कोई अंत नहीं, विस्तार ही विस्तार है जितना विस्तार उतना ही मुफ्त श्रम का नियोजन.

सविता जी के चिंतन-केंद्र में भरे-घर की महिलाओं की दिनचर्या है.लेकिन इस दिनचर्या को साथ जोड़ लें तो इन महिला मजदूरों के श्रम का क्या मोल है!!! लेकिन आप जानते हैं इन औरतों को मर्द मजदूरों से कम मजदूरी मिलती है.
सोलह से अठारह घंटे हाथ-तोडू, पैर -फोडू श्रम करने के बावजूद महिला श्रम को उत्पादक नहीं माना जाता!
जब  मर्दुमशुमारी हो रही थी तो सरकारी नज़र सिर्फ शहरी इलाके में कार्यरत महिला मजदूरों पर जा कर टिक गयी.जिनका प्रतिशत महज़ १५ है.जबकि चूल्हा-चक्की, बाडी-खेत में पिसती असंगठित क्षेत्र   में करीब ८६-८७ फीसदी औरतें हैं.युएनो की रपट के मुताबिक औरतें फसल कटाई के बाद उसकी गदाई .कभी दूसरी जगह से पानी का जुगाड़, जानवरों को सानी देना, बच्चों की देख-भाल खाना बनाना आदी काम करती हैं.उन्हें काम की शक्ल में नहीं देखा जाता.और बड़े सामंत या मजदूर ठेकेदारों द्वारा अस्मत से खिलवाड़ की रोज़ नौबत या बलात-कर्म!!

सुबह होते ही इनका दैहिक  और आर्थिक शोषण शुरू हो जाता है.आँख मलते ही इन्हें अपने परिवार के पेट कि चिंता और ये खुद इंधन बनने  के लिए घर से निकल जाती  हैं.भैया नरेगा अभी आया है और कितना भला हो रहा है इनका, ढंकी छुपी बात नहीं है.सबसे पहले ये पानी के लिए ..फिर अन्न के लिए और जलावन के लिए .....
इन कामों में सिर्फ ३.७ फीसदी पुरुष ही मदद  करते हैं.पचास फीसदी अनाज की कूतायी-पिसाई  भी घरेलु औरतें करती हैं.
ग्रामीण या श्रमिक औरतों को छोड़ दें तो भी एक हिन्दुस्तानी औरत अपनी ज़िन्दगी के कई अहम् साल सिर्फ चूल्हा-चौकी और उसके धुएं में गंवा देती है.ज़हरीले धुएं से उसका जिस्म खोखला हो जाता है.एक रपट का हवाला लें तो घरों के अन्दर का वायु-प्रदूषण, बाहर के प्रदूषण से कहीं ज्यादा खतरनाक होता है.  नाईट रोजन ओक साइड , कार्बन मनो ओक साइड जैसी ज़हरीली गैसें इनमें मिली रहती हैं. शायद यही सबब  है कि औरतों को जो गाँव में हैं या शहर की  तंग गलियों में विवश है...उन्हें दमा  और  टीबी जैसी बीमारी हो जाती  है.मजदूरिनों की हालत और भी बदतर  है.अब सरकार ने उत्पादकता तो मान लिया..सस्ती मजदूरी कौन  करेगा???? क्या इतने भर से उनकी समस्याएं हल हो गयीं....गाँव के बड़े बाबुओं द्वारा इनका जिस्मानी शोषण आम बात है.अक्सर दूसरों के खाने का इंतजाम करने वाली खुद भूखे सो जाती  है.कमर तोड़ महंगाई , आज भी गाँव और कई परिवारों की दशा मदर इंडिया की नर्गिस की ही तरह है...बर्तन और जेवर गिरवी तो हम जैसे लोग भी रखते हैं...वहाँ पता नहीं ये औरतें क्या-क्या  रखती हैं...विडंबना है..या नियति....पता नहीं..लेकिन तल्ख़ है ज़रूर!!!!यानी क़र्ज़ अदायगी के चक्कर में कई मासूम बालाएं बंधुआ मजदूर बन जाती  हैं..और इनके स्वामी इनसे सारी  मिहनत करवाता है..कई बार इन्हें गाँव छोड़कर दूसरी जगह देस-परदेस भी जाना पड़ता है..
कुछ दिनों पहले भाई आवेश ने खबर भी दी  मजदूरों के पलायन की.मध्य-बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ से पंजाब-कश्मीर तक पलायन करती इन महिला मजदूरों की लम्बी कतार है.नयी जगह, नए लोग.नयी आबो-हवा .....लेकिन कमाल !!इन के बच्चे कहीं भी धुल-मिटटी में पड़े कभी रोते-कभी मुस्कुराते हैं! इनकी सिहत की फ़िक्र तो कभी नए मालिक की ज़बान जो चुआती रहती है .....

जहां रहता हूँ वहाँ कई दिनों से इक इमारत बन रही है...रोज़ इन्हें देखता हूँ..कईयों से बात  ....ये उसी का दर्द है...कभी उनसे हुयी बात-चीत से भी रूबरू कर वाने का इरादा है..

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

मुस्लिम औरतों की दयनीय स्थिति : ज़रूरत है एक बी आपा की



महिलाएं चाहे जिस वर्ग, वर्ण, समाज की हों, सबसे ज्यादा उपेक्षित हैं, दमित हैं, पीड़ित हैं।
इनके उत्थान के लिए बाबा साहब भीम राव आंबेडकर ने महिलाओं के लिए आरक्षण की वकालत की थी।
महात्मा गांधी ने देश के उत्थान को नारी के उत्थान के साथ जोड़ा था। मुस्लिम औरतों की स्थिति सबसे बदतर है।

पहली महिला न्यायाधीश बी फातिमा , राजनेता मोहसिना किदवई , नजमा हेपतुल्लाह , समाज-सेविका -अभिनेत्री शबाना आज़मी, सौन्दर्य की महारती शहनाज़ हुसैन, नाट्यकर्मी नादिरा बब्बर, पूर्व महिला हाकी कप्तान रजिया जैदी, टेनिस सितारा सानिया मिर्जा, गायन में मकाम-बेगम अख्तर, परवीन , साहित्य-अदब में नासिर शर्मा, मेहरून निसा परवेज़, इस्मत चुगताई, कुर्रतुल ऍन हैदर तो पत्रकारिता में सादिया देहलवी और सीमा मुस्तफा जैसे कुछ और नाम लिए जा सकते हैं, जो इस बात के साक्ष्य हो ही सकते हैं की यदि इन औरतों को भी उचित अवसर मिले तो वो भी देश-समाज की तरक्की में उचित भागीदारी निभा सकती हैं।

लेकिन सच तो यह है कि फातिमा बी या सानिया या मोहसिना जैसी महिलाओं का प्रतिशत बमुश्किल इक भी नहीं है। अनगिनत शाहबानो, अमीना और कनीज़ अँधेरी सुरंग में रास्ता तलाश कर रही हैं।
भारत में महिलाओं की साक्षरता दर 40 प्रतिशत है,इसमें मुस्लिम महिला मात्र 11 प्रतिशत है। हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने वाली इन महिलाओं का प्रतिशत मात्र 2 है और स्नातक तक का प्रतिशत 0.81

मुस्लिम संस्थाओं द्वारा संचालित स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर मुस्लिम लड़कों का अनुपात 56.5 फीसदी है, छात्राओं का अनुपात महज़ 40 प्रतिशत है। इसी तरह मिडिल स्कूलों में छात्रों का अनुपात 52.3 है तो छात्राओं का 30 प्रतिशत है।

पैगम्बर हज़रत मोहम्मद ने कहा था :

तुमने अगर इक मर्द को पढाया तो मात्र इक व्यक्ति को पढ़ाया। लेकिन अगर इक औरत को पढाया तो इक खानदान को और इक नस्ल को पढ़ाया।

लेकिन हुज़ूर का दामन नहीं छोड़ेंगे का दंभ भरने वाले अपने प्यारे महबूब के इस क़ौल पर कितना अमल करते हैं।

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रविवार, 13 दिसंबर 2009

विवादित है ‘नारी’!

वाह भाई! वाह!!! अब ब्लागर भी महिला-पुरुष, हिंदू - मुसलमान, अवर्ण-सवर्ण हो गया। औरत होने की सज़ा लिखने के बाद कइयों ने मुझसे कहा कि मुझे यह सब उनके हवाले छोड़ देना चाहिए। यानी महिला ब्लागरों के। आप अपने समाज के बारे में क्यों नहीं लिखते। मुस्लिम ब्लागर हैं ही कितने!!! किसी ने कहा कि नारी नामक ब्लाग विवादास्पद है।
इस विभाजन का मैं शुरू से ही मुख़ालिफ़ रहा हूं। हमारा हिंदी साहित्य समाज इस रोग से पहले ही ग्रसित था लेकिन चिट्ठा जगत को इससे गुरेज़ करना चाहिए। लेखक सिर्फ़ लेखक होता है। और कोई इस आग्रह-पूर्वाग्रह से किसी चीज़ को देखता है या लेखन करता है तो ऐसा लेखन अमरत्व हासिल कभी नहीं करेगा। गर कोई औरत के बारे में लिखता है या कोई दलित के मुतल्लिक़ सवाल करता है। यहां गलत क्या है। अंग्रेज़ी के चावसर और हिंदी के संभवत दूबेजी टोटा रटंत करा गए कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। और हम सब इसी समाज में तो रहते हैं। चाहे महिता हों ,पुरुष हों, अवर्ण या सवर्ण हों।
लेकिन भौतिक्तावादी उपभोगतावाद के पड़ते हथौड़े से दर्पण में आई किरचों ने सारा गुड़ गोबर कर दिया है। चीन्ह- पहचान ,भाई- भतीजावाद और वर्ग-जाति की सड़ांध पत्र -पत्रिकाओं से लेकर अब हिंदी ब्लागों तक स्पष्ट महसूस की जा रही है। ज्यादा से ज्यादा क्लिक करवाने की होड़ मची है। शोहरत का नशा भी भोगवाद की ही एक शक्ल है। ब्लाग अपनी बात रखने के लिए बहुत ही अच्छा मंच है। हम लोंगों को इसका सदुपयोग करना चाहिए। वैचारिक मतभेद हो सकते हैं । लेकिन इधर जिस तरह की पोस्ट या कमेंट पढ़ने को मिल जाते हैं, ऐसी अमर्यादित बोली भाषा से हमें बचने की ज़रूरत है।

ज़िक्र साहित्य और पत्रकारिता का व्हाया ब्लाग

भोगवाद की बारिश ने हम जैसे कलम घिस्सुओं को भी पानी-पानी कर दिया है। भौतिक सुख-सुविधा के सामने आदर्श ,देशहित, नैतिक्ता सब कुछ नतमस्तक हो रहे हैं । रातों-रात सब कुछ भोग लेने की प्रवृति ने जोर पकड़ा है । उत्कृष्ट साहित्य, पटल से पूरी तरह ग़ायब है । प्रसिद्धि की भेड़चाल ने कला, साहित्य के नाम पर कुछ भी परोस देने की कुपरंपरा को जन्म दिया है। एक श्लोक याद आयाः

घटं मिंद्यात, पट छिंद्यात
कुर्यात रासम रोदनम्
येनकेन प्राकरेणः पुरुषो भवेत्।

यानी किसी को शोहरत पानी हो तो उसे चाहिए कि किसी का घड़ा फोड़े, किसी का कपड़े फाड़े या गधे की तरह रेकना शुरू कर दे । तब लोग उसे जान ही जाएंगे। साथियो, ऐसा भी हो रहा है, यह कहने में कोई संकोच नहीं। प्रायोजित मानसम्मान की फसल भी ख़ूब लहलहा रही है। एयरकंडीशंड में बैठकर कालाहांडी पर कविताएं की जाती हैं। पत्रपत्रिकाओं से लेकर ब्लागरों ने भी अलग-अलग दुकान सजा रखी है। देश-भर में जिसके अपने-अपने एजेंट तैयार हैं। लेकिन ऐसा हरगिज़ नहीं कि अच्छी रचनाएं लिखी ही नहीं जा रही हैं। दरअसल उनका यथेष्ठ प्रकाशन-प्रसारण नहीं हो पाता है। यदि कहीं हो गया तो उसकी चर्चा नहीं की जाती। कइयों के अंदर बहुत कुछ उबलता है पर परिस्थिति उसे बाहर आने से रोक देती है। गांव, क़स्बों और महानगरों में रोटी-रोज़ी के लिए जूझते ऐसे असंख्य क़लमकारों की पीड़ा को माधव कौशिक बयान करते हैं :

सपनों की दर्द आह पर कुछ भी नहीं लिखा
हमने बदन की चाह पर कुछ भी नहीं लिखा

जब सरफ़रोशी की तमन्ना लिए लोग सड़कों पर निकल आते थे। उस दौर में अकबर इलाहाबादी ने कहा थाः

है नहीं शमशीर तो अपने हाथों क्या हुआ
हम क़लम से ही करेंगे क़ातिलों के सर क़लम

हम कर तो यही रहे हैं लेकिन अपने ही भाइयों का सर क़लम कर रहे हैं। जो ग़लत है। अख़बार तो एक ब्रांड बन चुका है। इसका उपयोग हर भले बुरे कामों के लिए किया जाता है। नेता जैसा शब्द कभी आदर सूचक हुआ करता था लेकिन आज इसकी इतनी तौहीन-फ़ज़ीहत हो चुकी है कि उबकाई आती है। ऐसा ही कुछ-कुछ अब लेखक या पत्रकार जैसे शब्द को सुनकर होता है। प्रबुद्ध कहा जाने वाला तबक़ा नाम-भर का प्राणी रह गया है। जैसी कभी रही होगी वैसी सोच और व्यवहार में एकरूपता ढूंढते रह जाएंगे। सीख व विचार बहुत है। बात वही पेप्सी पीते हुए गांधी का स्मरण करना। बुद्धिजीवि लफ़्फ़ाज़ी करना तो खूब जानता है लेकिन कहां??? बस एक दूसरे की टांग खींचने में या फ़ला- फ़लां को नाम सम्मान दिलाने में अपनी ज़्यादातर ऊर्जा खपा देता है। यदि शब्दों का सार्थक उपयोग करे तो क्या कमाल की बात हो। प्रेमचंद ने कहा हैः साहित्य राजनीति के आगे आगे चलने वाली मशाल है। आम आदमी के दुख दर्द के प्रति इनका नज़रिया नित्य पार्टी बदलने वाले नेताओं से कम नहीं। बात यहीं तक महदूद नहीं है।
अब तो दलित लेखक, महिला ब्लागर, मुस्लिम कवि !!!!
ऐसा अगल्ला पुछल्ला क्या आपको उद्वेलित नहीं करता???



शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

सज़ा औरत होने की



‘महिलाओं के साथ बेइज़्जती’ कइयों ने नारी के सर दोष मढ़ने की कोशिश की है। उनका कहना है कि औरतें इन दिनों खुद ही भोगवस्तु बनने को उतारू हैं। अपनी चालढाल से पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करने की चेष्टा करती है। किसी हदतक इसे स्वीकार किया जा सकता है। यह मौजूदा उपभोगतावादी समय का असर है। इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों ने उनके काम पर कम उनके कमर पर ज़्यादा ध्यान दिया है। उनके डगर में तब्दीली आई भी है। अकबर इलाहाबादी ने बहुत पहले कहा था:
हमहीं से सब यह कहते हैं कि रख नीची नज़र अपनी
कोई उनसे नहीं कहता न निकलें यूं अयां होंकर


पीरधान के मामले में सभी के अपनेअपने तर्क हैं। इसी वजहकर शायर असलम सादीपुरी को भारतीय नारी की पहचान करने में दुविधा होती हैं :
मशरिक की यह देवी है कि मग़रिब की परी है
बाज़ार के नुक्कड पर जो बेपरदा खडी है


अकबर हों या असलम सिर्फ़ शहरी महिलाओं की बात करते हैं जबकि यौनाचार की अधिकांश घटनाएं गांव में घटती हैं। सारे वैश्विक परिवर्तनों के बावजूद हमारे गांव का तानाबाना अभी तक 16वीं और 17 वीं सदी का है। तस्लीमा नसरीन ने कहा था कि पैर की पाज़ेब भी पुरुष द्वारा थोपी गई जकड़न की निशानी है। औरत कहां जा रही है इसका पता पाज़ेब की घुंघरू से चल जाता था । विज्ञान यह नहीं बता पाया है कि पहले पुरुष ने जन्म लिया या औरत ने! जैसे कोई नहीं बता सकता कि पहला व्यक्ति हिंदू था या मुसलमान! सभी देवी-देवताओं या आदमहव्वा की बात करते हैं। खै़र! पहले कौन जन्मा? इस माथपच्ची में न पड़े लेकिन जब से यह पृथ्वी पर हैं इनके मध्य-नफ़रत भरे प्रेम का खेल बदस्तूर जारी है। नरनारी का रिश्ता उस अंग्रेज़ी गाने की याद दिलाता है जिसमें कहा गया है कि मैं तुमसे प्यार नहीं करता मैं तुम्हें नापसंद नहीं करता लेकिन तुम्हारे बिना मैं रह नहीं सकता। पुरुष पर फ़तवा लगाने वाली चंद महिलाएं हुयीं पर पुरुष ने उसे हर कोण से आंकने-परखने की कोशिश की है। ख्यात लेखक जैनेंद्र सवाल करते हैं स्त्री क्या चाहती है? अधीनता और स्वतंत्रता। शायद एक साथ दोंनो चाहती है। ऐसा कम ही देखने आता है। जटिल प्रश्न है।बाबा तुलसीदास नारी को ताडन का अधिकारी मानते हैं . कइयों को नारी पाप का जड़ लगती है तो किसी को नर्क का द्वार। किसी के लिए जन्नत का दरवाज़ा।किसी के लिए माया है किसी के लिए छल! सीताहरण करने वाले श्री लंकेश का पुतला हर साल जलाया जाता है। महज़ प्रतीक-भर किसी मुर्दे का पुतला जलाए जाने से बेहतर होता दहेज के नाम पर जलाई जा रही अनगिनत अबलाओं को बचाना। यहां तो पुरुष ने तलाक़ दिया और हलाला करे औरत!(गर तलाक़शुदा औरत से दोबारा शादी करनी है तो औरत किसी मर्द से शादी करे और फिर वह मर्द उसे तलाक़ दे तब जाकर वह पहला पुरुष उससे शादी कर सकता है। कुरआन की कोई दलील नहीं है बावजूद यह ग़लत परंपरा जारी है)। कुछ साल पहले राजस्थान में अजूबी घटना हुई। एक पंचायत ने फैसला सुनाया कि जिस औरत के साथ बलात्कार हुआ है उसका पुरुष उक्त बलात्कारी की पत्नी के साथ बलात्कार करे!!!!
यानी कुल मिलाकर नारी ही दंड भोगे!!!! वह रे न्याय!!! अब आप सर खुजलाएं या सिर फोडें़।आज भी कई रूपकुंवर मृत पति के साथ ज़िंदा स्वाहा कर दी जाती है।भले प्रसाद उसकी श्रद्धा करें या राष्ट्रकवि मैथिलिशरण उसके अबला जीवन पर आंख सुजाने तक रोएं हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है। पुरुष की जटिलताएं अजीब हैं। वह स्वयं समस्याएं खड़ी करता है और स्वयं ही समाधान भी चाहता है। बहुत बहुत पहले अरस्तु ने कहा थाः नारी की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनति निर्भर करती है। आज़ादी से पहले नारी की दशा दलितों भी बदतर थी। कालांतर में काफ़ी क़ानूनी फेरबदल हुए। उन्हें आरक्षण दिए जाने की वकालत की जा रही है। लेकिन इस वकालतबाज़ी ने अख़बार के रिक्त पन्नों के सिवाय भरने के किया क्या है?
अरविंद जैन की चर्चित पुस्तक औरत होने की सज़ा बताती है कि वे तमाम क़ानून जो स्त्रियों को सुरक्षा और सुविधा देने के नाम पर बनाए जाते हैं या प्रचारित किए जाते हैं अपने मूल रूप में मर्दों द्वारा मर्दों की सुविधा के लिए बनाए गए हैं। हंस संपादक और नामीगिरामी लेखक राजेंद्र यादव पुस्तक की भूमिका में लिखते हैः हमारे सारे परंपरागत सोच ने नारी को दो हिस्से में बांट दिया है। कमर से ऊपर की नारी और कमर से नीचे की औरत...........कमर से ऊपर की नारी महिमामयी है करुणाभरी है। सुंदरता और शील की देवी है। वह कविता है संगीत है अध्यात्म है और अमूर्त है। कमर के नीचे वह कामकंदररा है कुत्सित और अश्लील है ध्वंसकारिणी है राक्षसी है और सब मिलाकर नरक है।
आएं इस परंपरागत सोच में तब्दीली लाएं। जागृति लाओ कि विश्व का अज्ञान दूर हो सके।












बुधवार, 2 दिसंबर 2009

उर्दू के श्रेष्ठ व्यंग्य


[जिसे पढ़कर हँसी आ जाय वो हास्य हो सकता है,लेकिन जिस रचना का पाठ अन्तस् तक विचलित कर दे वही व्यंग्य हैं।राजपाल से उर्दू व्यंग्य पर हमारी एक पुस्तक आई उर्दू के श्रेष्ट व्यंग्य इस पुस्तक की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि उर्दू के कुछ महत्त्वपूर्ण व्यंग्य लेखकों की श्रेष्ठ रचनाओं के चयन का अभाव हिन्दी में अरसे से महसूस किया जा रहा था। व्यंग्य लेखकों की सूची तो काफ़ी बड़ी है। इस चयन में उन्हीं लेखों को शामिल किया गया है, जिसका पूरा सरोकार व्यंग्य से है। मेरा पूरा प्रयास रहा है कि हर लेखक की प्रतिनिधि-रचना अवश्य ली जा सके। समय अभाव तथा कहीं यह ग्रन्थ का आकार न ले ले, इस संकट से बचने का प्रयास भी रहा है। सम्भव है किसी को इस चयन के श्रेष्ठ व्यंग्य कहने पर आपत्ति हो, जो जायज़ है। मेरा दावा भी नहीं है, कोशिश भर की है। कई महत्त्वपूर्ण लेखक छूट गए हैं। चयन या संकलन का दायित्व सदैव विवादास्पद रहा है। इस चयन को तैयार करने में मुज्तबा हुसैन साहब का सर्वाधिक योगदान रहा है। उसके बाद वरिष्ठ हिन्दी कवि-लेखक विष्णुचन्द्र शर्माजी का बार-बार दबाव है। साथी कृष्णचन्द्र चौधरी तथा भाई नईम अहमद ने सामग्री संकलन में मदद की। मैं इन सबका तहेदिल से आभारी हूँ। आईये इसके सम्पादकीय ही से सही आपका परिचय करा ता चलूँ, मुमकिन है साहित्यतिहास के खोजियों को कुछ मदद मिल सके.]



व्यंग्य-लेखन हमारे यहाँ सामान्यतः दूसरे दर्जे की विधा मानी जाती है। माना यह जाता है कि हमारे भाषायी संस्कार में हास्य और व्यंग्य का तत्व आदि समय से ही अस्तित्व में है। इसका कारण है, उर्दू तथा हिन्दी में शामिल संस्कृत तथा अरबी-फ़ारसी शब्दों, मुहावरों की बहुलता, जो देशज भाषा तथा बोलियों में आकर अनूठे आकर्षण पैदा करते हैं। शेक्सपियर, आर्नोल्ड तथा अलेक्ज़ेण्डर पोप जैसे अंग्रेज़ी कवियों की पंक्तियों में उपस्थित समसामयिक स्थितियों, विडम्बनाओं पर तीक्ष्ण वार जब व्यंग्य माने जाने लगे तो हमने भी बाज़ाप्ता भारतीय सन्दर्भों में ऐसे रचनाकारों की खोज-बीन शुरू की, पता यूँ चला कि मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के समय पैदा हुआ जाफ़र ज़टुल्ली (1659 ई.) भारत का पहला व्यंग्य-कवि है। औरंगज़ेब के शासनकाल में मृत्यु को प्राप्त इस कवि ने कछुआनामा, भूतनामा जैसे अमर-काव्य की रचना की। औरंगज़ेब की मौत के बाद सत्ता के लिए उसके पुत्रों के मध्य हुए युद्ध को केन्द्र में रखकर रचित उनकी कविता जंगनामा व्यंग्य-इतिहास में मील का पत्थर है।

योरोप की भाँति भारतीय उपमहाद्वीप में भी व्यंग्य जैसी अचूक विधा का प्रयोग सबसे अधिक पद्य में किया गया। जाफ़र ज़टुल्ली से यह शुरू होकर कबीर, मीर, सौदा, नज़ीर अकराबादी, अकबर इलाहाबादी, रंगीन इंशा आदि अनगिनत उर्दू शायरों के यहाँ सामाजिक व्यवस्थाओं तथा धार्मिक अन्धविश्वासों पर कटाक्ष मिलता है। ग़ालिब जैसा शायर अपने ख़तों के माध्यम से साहित्य जगत् को उच्च स्तर का व्यंग्य-गद्य देता है। लेकिन व्यंग्य की विधा को स्वीकृति मिली 1877 में लखनऊ से मुंशी सज्जाद हुसैन के सम्पादन में संचालित पत्र अवधपंच के प्रकाशन से।
उर्दू व्यंग्य के इतिहास को पृष्ठवद्ध करना तथा क़रीब-क़रीब सभी नामचीन लोगों की रचनाओं को शामिल करना दुष्कर न सही कठिन-कर्म अवश्य है। बीती सदी भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक विकास की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। अन्य विधाओं की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। अन्य विधाओं की तरह व्यंग्य को इसी युग में लोकप्रियता मिली। जब उर्दू में व्यंग्य की बात की जाती है तो इसका अर्थ-आशय गम्भीर-गद्य लेखन से लगाया जाता है, जहाँ शब्द समय की विसंगतियों पर प्रकाश डालते हैं तथा यही शब्द मुक्ति का मार्ग भी बतलाते हैं। यह सिर्फ़ गुदगुदाते ही नहीं हैं। हमें अपने आप को नये सिरे से सोचने पर विवश भी करते हैं। सिर्फ़ चुटकुलेबाज़ी को व्यंग्य नहीं माना जा सकता है, जैसा इन दिनों कवि-सम्मेलनों के हास्य रस के कवि कर रहे हैं।

बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में व्यंग्य-निबन्धकारों में महफ़ूज अली बदायूँनी, ख़्वाजा हसन निज़ामी, क़ाज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार, हाजी लक़लक़, मौलाना अबुलकलाम आज़ाद, अब्दुल अज़ीज़, फ़लक पैमा आदि का नाम सफ़े-अव्वल है। उसके बाद फ़रहत उल्लाह बेग, पतरस बुख़ारी, रशीद अहमद सिद्दीक़ी, मुल्ला रमूज़ी, अज़ीम बेग चुग्ताई, इम्तियाज़ अली ताज, शौकत थानवी, राजा मेंहदी अली ख़ान और अंजुम मानपुरी आदि व्यंग्यलेखकों का नाम और काम नज़र आता है। इसी दौर के इब्न-ए-इंशा भी हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू व्यंग्य लेखन के इतिहास में एक के बाद कई क़लमकारों का नाम दर्ज होता गया, लेकिन जिनमें ख़म था, उन्हीं को लोग दम साधे पढ़ते रहे, सुनते रहे। ऐसे ही कागद कारे करने वालों में कन्हैया लाल कपूर, फ़िक्र तौंसवी, मोहम्मद ख़ालिद अख़्तर, शफ़ीक़ुर्रहमान, कर्नल मोहम्मद ख़ान कृश्न चन्दर, मुश्ताक़ अहमद युसफ़ी, मुश्फ़िक़ ख़्वाजा, फुरक़त काकोरवी, युसुफ़ नाज़िम, इब्राहिम जलीस, मुज्तबा हुसैन अहमद जमाल पाशा, नरेंद्र लूथर दिलीप सिंह, शफ़ीक़ा फ़रहत आदि हस्ताक्षर प्रथम पंक्ति में अंकित किए जा सकते हैं।

अज़ीम बेग चुग्ताई मूलतः व्यंग्यकार नहीं हैं। लेकिन अपने अफ़सानों में उन्होंने जगह-जगह जो व्यंग्य की छौंक लगाई उसने उनके व्यंग्य को परिपक्व किया। इक्का, कोलतार, शातिर की बीवी आदि निबन्ध चर्चित व्यंग्य हैं। चुग्ताई के समकालीन मिर्ज़ा फ़रहत उल्लाह बेग की भाषा में मुहावरों का यथेष्ट इस्तेमाल मिलता है। कहा जाता है कि चुग्ताई ने व्यंग्य-कथा को जन्म दिया तो बेग ने ठेठ व्यंग्य की बुनियाद डाली। पतरस बुख़ारी के पास व्यंग्य की जो साफ़-सुथरी तकनीक मौजूद है, वो अन्यत्र दुर्लभ है। शौकत थानवी अपने समकालीन लेखकों में सर्वाधिक आकृष्ट करते हैं। परम्परा से विद्रोह इनकी पहचान है। रशीद अहमद सिद्दीक़ी के लेखन में जहाँ मनोरंजक स्थितियों का वर्णन है, तो आसपास ही व्यंग्य की तीक्ष्णता और चुभन भी आकार ग्रहण करती है। इब्न-ए-इंशा का शिल्प उन्हें दूसरों से अलग रखता है। शिष्टतापूर्वक अपनी बात रखना, साथ ही सामने वाले पर कटाक्ष भी करना अर्थात साँप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे। उन्होंने उर्दू में व्यंग्य की विधा को एक नई ऊँचाई दी। बातों-बातों में हँसा देना फिर रुला देना यह शफ़ीक़ुर्रमान के बूते में था। अंग्रेज़ी साहित्य में ऐसी कला स्टीफन लीकॉक के पास थी। अहमद जमाल पाशा के व्यंग्य निबन्धों के कई संग्रह प्रकाशित हुए। उन्होंने व्यंग्य विधा को नितान्त नये शिल्प विधान में ढालने का यत्न किया। उनके निबन्धों में हास्य-व्यंग्य ऐसे रचे-बसे हैं कि आप उनकी अलग-अलग पहचान नहीं कर सकते। युसुफ़ नाज़िम वरिष्ठ व्यंग्य लेखक हैं। जिनके व्यंग्य तथा शब्दचित्र जितने लोकप्रिय हुए, उतनी ही लोकप्रियता उनकी अन्य रचनाओं को भी मिली। दरअसल अन्य विधाओं में भी वे व्यंग्य का इस्तेमाल इतने चातुर्य से करते हैं कि देखने वालों की आँखें ख़ुली की खुली रह जाती हैं। फ़िक्र तौंसवी उर्दू व्यंग्य साहित्य का स्तम्भ हस्ताक्षर हैं। इस व्यंग्यशिल्पी की मेधा ग़जब की थी। दैनिक मिलाप में वर्षों प्रकाशित इस लेखक के कॉलम ‘प्याज़ के छिलके’ के समान ही कॉलम में तह-दर-तह विडम्बनाओं का उद्धघाटन होता जाता था।

कृश्न चन्दर अफ़सानानिसार के नाते स्थापित हैं। लेकिन अपने गद्य लेखन की शुरुआत उन्होंने व्यंग्य से ही की थी। कन्हैयलाल कपूर का सम्पूर्ण सरोकार व्यंग्य से ही सम्बद्ध रहा है। दिलीप सिंह का उदय थोड़ा विलम्ब से अवश्य होता है, लेकिन उनके निबन्धों ने गम्भीर पाठकों का ध्यान बरबस आकृष्ट किया। आज़ादी के बाद यदि सबसे ज़्यादा ध्यान किसी व्यंग्यकार ने खींचा है तो वह हैं मुज्तबा हुसैन। हर घटना में व्यंग्य का तत्व। हर बात में हास्य का रस। यह उनका परिचय है। अपने लेखन का आरम्भ आपने उर्दू दैनिक सियासत से किया। उसके बाद आपकी क़लम सतत चलायमान है। नये शब्द और मुहावरे गढ़ने में भी सिद्धहस्त हैं। व्यंग्य-निबन्धों के अतिरिक्त आपके ख़ाके (शब्दचित्र) और यात्रा-संस्मरण ने पाठक और आलोचक को प्रभावित किया है। मुज्तबा हुसैन के बाद उर्दू में व्यंग्य परम्परा को आगे ले जाने वालों में वो साहस दिखलाई नहीं पड़ता है। यूँ तो कई नाम हैं, लेकिन वे अभी तिफ़ले-मक्तब ही जान पड़ते हैं। अभी काफ़ी अभ्यास की ज़रूरत है। हास्य को ही व्यंग्य नहीं समझा जा सकता।

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