रविवार, 15 जून 2008

ग़ज़ल

लहू गो अश्क बन कर बह गया है
मेरे दामन पे धब्बा रह गया है

कहाँ जाऊं मैं तेरे दर से उठ कर
यही ले दे के इक दर रह गया है

मेरी मजबूरियाँ मत देख जालिम
सितम ढाले जो बाक़ी रह गया है

नज़र आते हैं तेवर बदले -बदले
कोई कुछ चुपके -चुपके कह गया है

पड़ीं क्या -क्या नहीं इस पर बलाएँ
भला हो दिल का सब कुछ सह गया है

उन्हें हो उनकी खुशनुदी मुबारक
मेरी किस्मत में गिरया रह गया है

क़मर कुछ शे 'र और पढिये
ज़माना अब भी तिशना रह गया है

5 comments:

Pragya ने कहा…

कहाँ जाऊं मैं तेरे दर से उठ कर
यही ले दे के इक दर रह गया है

bahut sundar hai... kisi premi ki majboori ki chah kar bhi woh apne prem se alag nahi ho paata!!

श्रद्धा जैन ने कहा…

लहू गो अश्क बन कर बह गया है
मेरे दामन पे धब्बा रह गया है

hmm sach kahte hain dard kitna bhi bahe jaaye rahe hi jata hai

कहाँ जाऊं मैं तेरे दर से उठ कर
यही ले दे के इक दर रह गया है

wah bahut khoob

मेरी मजबूरियाँ मत देख जालिम
सितम ढाले जो बाक़ी रह गया है

wah naya andaaz
नज़र आते हैं तेवर बदले -बदले
कोई कुछ चुपके -चुपके कह गया है

kya baat hai ji gazab likhte hain
पड़ीं क्या -क्या नहीं इस पर बलाएँ
भला हो दिल का सब कुछ सह गया है

sach kahte hain
Har dil hai ghayal aur main
sang roye badal aur main

रंजना ने कहा…

पड़ीं क्या -क्या नहीं इस पर बलाएँ
भला हो दिल का सब कुछ सह गया है

बहुत सही..........बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ........

रंजन गोरखपुरी ने कहा…

पड़ीं क्या -क्या नहीं इस पर बलाएँ
भला हो दिल का सब कुछ सह गया है

laajawaab kar gayaa ye sher...
bahut khoob sahab!!!

Satish Saxena ने कहा…

कहाँ जाऊं मैं तेरे दर से उठ कर
यही ले दे के इक दर रह गया है

अमां शहरोज मियां ! आप इतनी अच्छी ग़ज़ल भी लिखते है यह पता ही नहीं चला ! आपका बाकी खजाना कहाँ है ?

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